Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 39
________________ [ ३३ पाचवा सर्ग। पाँचवाँ सर्ग। अनन्तर प्रभंजन राजाने श्रीवर्धन मुनिको नमस्कार कर पूछा कि भगवन् ! शीलवत भंग करनेसे स्त्रियोंको कौनसे पापका बंध होता है ? मुनिराजने कहा-भव्य ! शीलके भंग करनेसे जीवोंको उस पापका बंध होता है, जिससे कि उन्हें संसार समुद्रमें पड़कर भारी यातना भोगनी पड़ती है। राजन् ! शील कुलसे भी उत्तम है क्योंकि विना शीलके कोई कुल, कुल ही नहीं कहला सकता है। शीलधारी नर-नारियोंकी देव भी आ-आकर पूजा करते हैं, चाहे वे किसी भी कुलके क्यों न हों; और जिसने उस शीलका मनद्वारा भी एक वार भंग कर दिया उसको असह्य और दुर्लघ्य नरकोंके भारी २ दुःख सहने पड़ते हैं। राजन् ! जो अपने शील-रत्नको खोकर पृथिवीतलपर विहार करता है, वह अवश्य ही छठी पृथिवी तकके दुःखोंका पात्र हो जाता है। नरकके दुःखोंका जैसा कुछ वर्णन जैनशास्त्रों में किया है उसीके अनुसार मैं कुछ वर्णन करता हूँ, तुम सावधान हो सुनो। _ नरकके उत्पत्ति स्थान दो तरहके हैं-एक मिष्टपाकमुख अर्थात् तबा, कड़ाहीके मुँह सारखे। दूसरे ऊँटके मुंहके आकार । उनमें नारकी जब पैदा होते हैं, तब उनके पैर तो ऊपरको होते हैं, और मुख नीचेको। उनके तीव्र पापका उदय होता है; अतएव उन्हें भारी वेदना होती है, जिससे वे बहुत आतुर रहा करते हैं। वे ज्यों ही अपने शरीरको यथोचित पूर्णकर भूमिपर गिरते हैं, त्यों ही वहाँकी तीव्र उष्णताको न सह सकनेके कारण फिर ऊपरको

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