Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 02
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 9
________________ आनंदित होने का और समय आता है अकेले हो जाने का और अकेले होने के सौंदर्य से आनंदित होने का। और हर चीज सौंदर्यपूर्ण है। लेकिन व्यक्ति को देखना चाहिए आवश्यकता की ओर, अर्थ की ओर नहीं। अर्थ, चेतन मन की बात है, आवश्यकता है अचेतन की बात। इसी भांति दूसरे प्रकार का स्वप्न अस्तित्व में आता है; तुम अपनी आवश्यकताएं काटते चले जाते हो, तब मन उन्हें पूरा करता है सपनों में। शायद तुम विवाह न करो क्योंकि तुमने महान पुस्तकें पढ़ ली हैं और तुम्हें विचारकों द्वारा विष दे दिया गया है। उन्होंने तुम्हारे मन को निश्चित नमूनों में ढाल दिया है। तुम स्वयं अस्तित्व के प्रति खुले नहीं हो; दर्शनशास्त्रों ने तुम्हें अंधा बना दिया है। तब तुम अपनी आवश्यकताओं को काटने लगोगे और वे आवश्यकताएं फूट पड़ेगी सपनों की सतह पर। अचेतन किसी दर्शन को नहीं जानता, अचेतन किसी अर्थ को नहीं जानता, किसी प्रयोजन को नहीं जानता। अचेतन तो केवल एक बात जानता है : जिसकी तुम्हारे अस्तित्व को आवश्यकता है उसे पूरा होना है। फिर अचेतन अपने सपनों को लादता है। यह दूसरे प्रकार का स्वप्न होता है; समझने और ध्यान करने के लिए बहुत अर्थवान है। अचेतन प्रयत्न कर रहा है तुम्हें यह सूचित करने का कि 'मूर्ख मत बुनो! तुम इसके लिए दुख उठाओगे। और अपने अस्तित्व को भूखा मत रखो। आत्मघाती मत बनो। अपनी आवश्यकताओं को मारते हुए धीमा आत्मघात मत करते जाओ। ' ध्यान रहे इच्छाएं होती हैं चेतन मन की और आवश्यकताएं होती हैं अचेतन की। यह भेद बहुत अर्थवान है, बहुत महत्वपूर्ण है समझने के लिए। इच्छाएं हैं चेतन मन की। अचेतन किन्हीं इच्छाओं को नहीं जानता है, इच्छाओं की फिक्र अचेतन को नहीं है। होती क्या है इच्छा? इच्छा फूटती है तुम्हारे सोचने-विचारने से, शिक्षा से, संस्कारों से। तुम देश के राष्ट्रपति होना चाहोगे; अचेतन को इस बात की फिक्र नहीं होती है। राष्ट्र के राष्ट्रपति हो जाने में अचेतन की कोई रुचि नहीं है। अचेतन को तो मात्र इसमें रुचि है कि एक परितप्त जीवंत समग्रता किस प्रकार हआ जाए। लेकिन चेतन मन कहता है, 'राष्ट्रपति हो जाओ। और यदि राष्ट्रपति होने में तुम्हे तुम्हारी स्त्री को त्यागना पड़े तो त्याग देना उसे। यदि तुम्हारी देह की बलि देनी पड़े तो दे देना। यदि तुम्हें बाकी सुख चैन त्यागना पड़े तो कर देना उसका त्याग। पहले तो देश के राष्ट्रपति हो जाओ। 'या बहत धन एकत्रित करना, वह भी चेतन मन की बात है। अचेतन तो किसी धन को जानता हीं। अचेतन जानता है केवल स्वाभाविक को। यह समाज से अछता होता है। अचेतन होता है पशुओं या पक्षियों की भांति, या वृक्षों की भांति। अचेतन समाज द्वारा, राजनेताओं द्वारा अनुकूलित नहीं होता रहा, संस्कारबद्ध नहीं होता रहा। वह अभी भी शुद्ध बना हुआ है। दूसरे प्रकार के स्वप्न की सुनो और उस पर ध्यान करो। वह तुम्हें बतलाएगा कि तुम्हारी आवश्यकता क्या है। आवश्यकताओं को पूरा कर दो और इच्छाओं की फिक्र मत लेना। यदि वास्तव में ही तुम

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