Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 9
________________ चना पृष्ट ५९ एरके " आचार्य हरिभद्रकी योगमार्गमें नवीन दिशा" नामक पेरेकी और खींचते हैं। योगविशिकाकी योगवस्तुका स्थूल परिचय तो पाठक वहींते कर लेवें. पर उसमें एक सामाजिक परिस्थितिका चित्रण है जिसका निर्देश यहाँ करना उपयुक्त है. हर पक देश. हर एक जाति और हर एक समाजमें धार्मिक गुरुओंकी तरह धर्मधूर्त गुरुओंकी भी कमी नहीं होती। पैसे नामधारी गुरू भोले शिष्योंको धर्मनाशका भय दिखाकर धर्मरक्षाके निमित्त अपने मनमाने ढंगले धर्मक्रियाका उपदेश देते हैं और धर्मकी ओटमें शास्त्रविरुद्ध व्यवहारका प्रवर्तन कराया करते हैं, ऐसे धर्मोंगी गुरुओंकी खबर जैसे 'आवश्यकनियुक्तिमें श्रीभद्रबाहुस्वामीने ली है वैसे बहुत संक्षेपमें पर मार्मिक रीतिते योगविशिकामें भी ली गई है । उसमें वैसे पाखंडिओको संबोधित करके कहा गया है कि "संघ या जैनतीर्थ मनमाने ढंगते चलनेवाले मनुष्योंके समुदाय मात्रका नाम नहीं है. ऐसा समुदाय तो संघ नहीं किन्तु हडिओंका ढेर मात्र है । सञ्चा जैन-तीर्थ या महाजन तो शाखानुकूल चलने काला एक व्यक्ति भी हो सकता है। इसलिए तीर्थरक्षाके नामसं अशुद्ध प्रथाको जारी रखना यही वास्तवमें तीर्थनाश है. क्योंकि शुद्ध धर्मप्रथाका नाम ही तीर्थ है जो अशुद्ध धर्मप्रथाम नष्ट हो जाता है। इनके सिवाय योगविशिकाके अन्तिम भागमें रूपी. अरूपी ध्यानका भी अच्छा वर्णन है । यह ग्रन्थ छोटा होनेसे इसमें जो कुछ वर्णन है वह संक्षिप्त ही है, पर इसकी संस्कृत टीका जो इस ग्रन्थके साथ ही दे दी गई है वह बहुत देखो ददनरनिटुक्ति गाथा १९०९ मे ११९ ।

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