Book Title: Pasnah Chariu
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 18
________________ पार्श्वनाथ के लोकोपकारी उपदेश ___महाकवि बुध श्रीधर के अनुसार जिज्ञासु भक्तजनों के लिये पार्श्व ने अपने बिहार-स्थलों में प्रवचन-प्रसंगो में नौवी सन्धि में त्रैलोक्य-वर्णन, लोकाकाश वर्णन, नरक-वर्णन, स्वर्ग-वर्णन, मध्यलोक-वर्णन तथा दसवीं से बारहवीं सन्धि तक में-श्रावकधर्म वर्णन, अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षा व्रत, जीवादि सप्ततत्त्व, 84 लाख योनियाँ, पुनर्जन्म, दातार के सप्त गुण, दान-प्रकार, पात्रभेद, ग्यारह प्रतिमाएँ आदि पर धर्मोपदेश दिये। इसी प्रकार पार्श्वचरित सम्बन्धी लिखित विभिन्न ग्रन्थों में भी पार्श्व के विभिन्न उपदेशों की चर्चाएँ की गई है, जो भले ही एकरूप न हों, फिर भी उन्हें अधिकांशतः एक दूसरे की पूरक मानी जा सकती हैं। पार्श्व का निर्वाण-स्थल एवं परिनिर्वाण-तिथि पार्श्वचरित सम्बन्धी समस्त ग्रन्थ इस विषय में एकमत हैं कि भगवान् पार्श्वनाथ को जहाँ से निर्वाण की प्राप्ति हुई, उस पावन-स्थल का नाम सम्मेदाचल अथवा सम्मेद-शिखर है। यह पर्वत-शिखर वर्तमान झारखण्ड राज्य के हजारीबाग जिले में स्थित है तथा वह जैनियों का अन्तर्राष्ट्रिय ख्याति का एक प्रमुख सिद्ध तीर्थस्थल है। महाकवि बुध श्रीधर ने पार्श्व की निर्वाण-तिथि श्रावण शुक्ल सप्तमी बतलायी है जबकि तिलोयपण्णत्ती में श्रावण शुक्ल सप्तमी का प्रदोषकाल बतलाया गया है। महाकवि पउमकित्ति ने अपने पासणाहचरिउ में उसका उल्लेख नहीं किया। अन्य ग्रन्थों में उक्त तिथि का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। कल्पसूत्र के अनुसार भगवान् पार्श्व को विशाखा नक्षत्र की श्रावण शुक्ल अष्टमी के पूर्वाह्न में मोक्ष-प्राप्ति हुई। इस विषय में दिगम्बर-लेखक तिलोयपण्णति का और श्वेताम्बर-लेखक कल्पसूत्र का अनुसरण करते आए हैं। इतना अवश्य है कि पार्श्वनाथ की आयु के संबंध में किसी में भी कोई मतभेद नहीं। सभी के अनुसार भगवान् पार्श्वनाथ ने सौ वर्ष की आयु प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त किया था। पार्श्व के तीर्थ की अवधि __ जैन इतिहासकारों के अनुसार पूर्ववर्ती तीर्थंकर से प्रारम्भ होकर उत्तरवर्ती तीर्थकर के जन्मकाल तक पूर्ववर्ती तीर्थंकर का तीर्थकाल कहलाता है। तीर्थंकर पार्श्व के तीर्थ की अवधि 250 वर्ष बतलाई गई है। समस्त पार्श्वसाहित्य के समस्त लेखक इस अवधि के विषय में एकमत है। तीर्थ से तात्पर्य वस्तुतः उस काल से है, जिसमें कि एक तीर्थकर के उपदेश का तदनुसार ही कथन एवं तदनुसार आचार-पालन किया जाता है। पार्श्वयुगीन निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय स्थानांगसूत्र एवं समवायांगसूत्र के अनुसार उक्त निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय चातुर्यामी था'। बौद्ध-साहित्य के दीघनिकाय के अनुसार राजा श्रेणिक-बिम्बसार का पुत्र कुणिक (अजातशत्रु) भगवान बुद्ध के सम्मुख महावीर से हुई अपनी भेंट की सचना देता हआ कहता है-“निर्ग्रन्थ चातर्याम-संवर से संयत होता है। इसी प्रकार की चर्चा संयत्तनिकाय तथा अंगुत्तरनिकाय में भी मिलती है। उत्तराध्ययन-सूत्र के केशी-गौतम संवाद में चातर्याम की स्पष्ट चर्चा है, जिससे भी महावीर-पूर्व के निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय पर प्रकाश पड़ता है। 1. (1) सव्वातो पाणातिवायाओ बेरमणं (2) सव्वातो मुसावायाओ बेरमणं। (3) सव्वातो आदिन्नादाणाओ बेरमणं (4) सव्वातो बहिद्वादाणाओ बेरमणं। -(दे. ठाणांग. 324) 2 निग्गण्ठो चातुयामसंवरसंबुत्तो होति। कथं च महाराज निग्गण्ठो चातुयामसंवरसंबुत्तो होति? इध महाराज निग्गण्ठो सव्ववारिवारितो च होति, सव्ववारियुतो च, सव्व वारिधुवो च सव्ववारिपुट्ठो च। एवं महाराज निग्गण्ठो चातुयामसंवरसंबुत्तो होति। दीघनिकाय सामंत्रफलसुत्तं । 3. दे. उत्तराध्ययन सूत्र का तेईसवाँ अध्ययन। 16:: पासणाहचरिउ

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