Book Title: Parshwanath Charitra
Author(s): Kashinath Jain Pt
Publisher: Kashinath Jain Pt

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Page 583
________________ *पार्श्वनायचरित्र उदास क्यों दिखायी देता है ? महीधरने एक ठंढी सांस लेकर कहा, "हे राजन् ! किसी दूसरेने कोई दुःख दिया हो, तो वह कहते सुनते भी बनता है, किन्तु जो दुःख अपने ही आप सिर पर आ पड़ता है, वह न तो किसीसे कहते ही बनता है न छिपाया ही जा सकता है। यह सुन राजाने कहा--"तू मेरा अभिन्न हृदय मित्र है । मुझसे दुःखका हाल बतलाने में कोई आपत्ति न होनी चाहिये।” महीधरने कहा-“राजन् ! क्या कहूं ? कुछ कहते सुनते नहीं बनता। आप जानते हैं कि मेरे केवल एक ही पुत्र है किन्तु वह इतना दुराचारी है कि ऐसे पुत्रसे मैं निःसन्तान होना अधिक पसन्द करता हूं। उसने द्यूतादि व्यसनोमें मेरा पूर्वसंचित समस्त धन नष्ट कर दिया है। उसे कितना ही कहिये, कितना ही समझाइये किन्तु कोई फल नहीं होता। अब तो वह चोरियां भी करने लगा है। अब मैं क्या करूं और यह दुःख किससे कहूं। उसे किसी तरह जुएके अड्डेसे उठाया तो सोम नामक वणिकके यहां जाकर चोरी की और उसका सारा धन उड़ा लाया। इसीलिये मैं आपके पास आया हूं। आप मुझे 'अपराधी समझ कर मेरे पास जो कुछ बचा है, वह ले लीजिये। शास्त्रमें चोर, चोरी करानेवाला, चोरको सलाह देनेवाला, चोरका भेद जाननेवाला, चोरीका माल लेनेवाला, और चोरको भोजन तथा स्थान देनेवाला-इन सबोंको चोर ही कहा गया है। महीधरकी यह बातें सुन राजाने उसे सान्त्वना दे विदा किया और कहा कि सुबह जो होगा सो देखा जायगा। सुबह नित्य

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