Book Title: Parmatma hone ka Vigyana
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Dariyaganj Shastra Sabha

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Page 14
________________ दही बनाया गया, दही को बिलोकर मक्खन, और मक्खन को गर्म करके घी बनाया गया। यहाँ दूध, दही आदि सब अवस्थाओं में गोरसपना एक रूप से विद्यमान है। अथवा, जैसे पुद्गल की वृक्ष-स्कंध रूप एक अवस्था थी, वह काट डाला गया तो लकड़ी रूप अवस्था में परिणत हुआ; फिर वह लकड़ी जलकर कोयला हो गई और फिर वह कोयला भी धीरे-धीरे राख में बदल गया, परन्तु पुद्गल पदार्थ पुद्गल रूप से अभी भी कायम है। अब चेतन पदार्थ का एक और उदाहरण लेते हैं। एक मनुष्य मर कर देव हो गया, वह देव संक्लेशभाव से मरा तो पशु हो गया, पशु से पुन: मनुष्य पर्याय प्राप्त की। अवस्थाएँ तो बदलीं परन्तु जीवात्मा वही-की-वही है। इसी प्रकार किसी आत्मा के द्वेष-रूप भाव हुए, फिर द्वेष का अभाव होकर राग-रूप भाव हो गए, फिर राग का भी अभाव होकर वीतरागता रूप परिणति हुई। इन सब परिवर्तनों-परिणतियों के बावजूद आत्मा अपने आत्म-रूप से ही कायम है। वस्तुओं में ऐसा परिवर्तन लगातार होता रहता है-परिणमन करना वस्तु का स्वभाव है। हरेक पौद्गलिक चीज नई से पुरानी होती रहती है, और यह बदलाव उसमें प्रतिक्षण होता रहता है। एक किताब जिसके पन्ने तीसचालीस साल में पीले पड़ जाते हैं, कागज कमजोर हो जाता है, तो ऐसा नहीं है कि वह बदलाव उसमें चालीस बरस बाद आया है। वह कागज तो प्रतिक्षण पीला हुआ है, कमजोर हुआ है। एक बालक अचानक युवा नहीं हो जाता या एक युवा अचानक वृद्ध नहीं हो जाता अपितु वह प्रतिक्षण वृद्ध हो रहा होता है। परन्तु सूक्ष्म परिवर्तन, प्रतिसमय होने वाला बदलाव हमारी पकड़ में नहीं आता। जब काफी वक्त गुजर जाता है तब हमारी पकड़ में आता है, स्थूल परिवर्तन को ही हमारी बुद्धि पकड़ पाती है। पुद्गल का पुद्गल रूप ही परिणमन होगा, चेतन का चेतन रूप ही परिणमन होगा। चेतना का परिणमन कभी चेतन-स्वभाव का अतिक्रमण नहीं कर सकता, और पुद्गल का परिणमन कभी पुद्गलत्व का अतिक्रमण नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में, चेतन कभी अचेतन नहीं हो सकता, और अचेतन कभी चेतन नहीं हो सकता। 'सामान्य' और 'विशेष' एक ही वस्तु के गुणधर्म होते हुए भी परस्पर भिन्न हैं। 'सामान्य' एक है और 'विशेष' अनेकानेक, 'सामान्य' ( १४)

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