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परमात्मा बनने की कला
चार शरण
विशुद्ध विचारों में रमणता
ऐसे साधु भगवन्त 'विसुज्झमाणभावा' शास्त्र में कहे अनुसार समिति-गुप्तिस्वाध्याय-आवश्यक इत्यादि अनुष्ठानों से आत्मा के भावों को उत्तरोतर विशुद्ध करने वाले होते हैं। जिस प्रकार हिंसा, झूठ, जुआ, निंदा, परिग्रह, विषय-सेवन आदि क्रिया से हृदय के भाव क्रूर, निष्ठुर, मायावी आदि बन जाते हैं, उसी प्रकार इन समिति, गुप्ति, शास्त्राध्ययन, प्रतिक्रमण-पडिलेहण आदि क्रियाओं से भाव शुद्ध व शुद्धत्तर बनते हैं। यह सहज है। अहो! मानव भव की ये कैसी सुन्दर सफलता। सच ही है- अनन्तकाल से चले आ रहे काम, क्रोध, लोभ (मद, मत्सर, हास्य, शोक, रति, अरति) इत्यादि मलिन भावों से अत्यन्त दूषित हुई आत्मा का संशोधन-विशुद्धिकरण श्री जिनाज्ञाकथित प्रशस्त वृत्ति और प्रवृत्तियों का त्रिकरण योग के पालनरूप जल से होता है। यदि मलिन भावों का नाश और प्रतिपक्षी ब्रह्मचर्य, क्षमा आदि विशुद्ध भावों को आत्मसात् करने की बात यहाँ नहीं करेंगे, तो फिर दूसरे भव में क्या कर सकेंगे?
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप से मात्र मुक्ति मार्ग को साधने वाले होने से वे साधु कहलाते हैं। आपका मुझे जीवन-पर्यन्त शरण हो, आश्रयभूत हो; ऐसे महान् आत्माओं के शरण में जाने वाले हृदय का परिवर्तन इतना तो जरूर होता है कि आदर्श-जीवन जीने की पद्धति तथा वस्तु लाभ-अलाभ का लेखा-जोखा, भय-निर्भयता की गिनती इत्यादि जगत् से तो विलक्षण भाव ही इन महात्माओं को होते हैं। इनका अनुसरण करना चाहिए।
तीसरे शरण में विशेषण युक्त साधु भगवन्तों की शरण को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि वर्तमान काल में सच्चे गुरु भगवन्तों का प्राप्त होना कठिन है। ज्ञानी गुरुजनों का मिलना दुर्लभ है। अतः उनकी प्राप्ति के लिए गुरुजनों की परीक्षा की जाए, यह उचित नहीं है, बल्कि उनकी प्राप्ति के लिए वीतराग भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए। "प्रार्थना सूत्र' में मोक्षमार्ग के लिए अत्यंत उपयोगी भवनिर्वेद आदि आठ वस्तुओं की भगवान से माँग की गई है। यह प्रार्थना मन की एकाग्रता और दृढ़ निश्चय के साथ करनी होती है, हमें क्या मांगना है? किससे मांगना है? और याचक के रूप में हमें कैसा होना चाहिए, इसका भी विवेक होना चाहिए। साधक विचार करता है 'सर्वगुणों के धारक, सर्व सुख के कारक ये ही परमात्मा हैं, इसलिए वास्तविक सुख के साधन भी मुझे वहीं से मिलेंगे।' ऐसे बहुमानपूर्वक साधक परमात्मा से प्रार्थना करता है
1. भव का निर्वेद-संसार से अरुचि 2. मोक्षमार्ग का अनुसरण 3. इष्टफल की सिद्धि 4. लोक अव्यवहार का त्याग
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