Book Title: Parishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Aatmtilak Granth Society

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Page 158
________________ १४४ परिशिष्ट पर्व. [ग्यारवाँ. दुःखित होकर सजल नेत्रों से उसकी माताने कहा अरे ! अधमाग्रणी तुझे शरम नहीं आती ? अपना पेट भरके सारा दिन गप्पे मारता है, तेरा पिता हमेशा व्यवसाय करके निर्वाह करता था, तू भलिभाँति जानता है कि हमारी स्थिति बहुत गरीब है, एक वक्तसे दूसरे वक्तका खानेका भी ठिकाना नहीं, फिर तू अपना पेटभर जाने पर क्यों साँड़के समान गाँव में घूमता रहता है, तेरे समान वयवाले अपने किये हुए व्यवसाय से अपने कुटुंका निरवाह करते हैं और तू अपना उदर भरने जितना भी व्यवसाय नहीं करता, तुझे कुछ लज्जा आती है या नहीं ? मैं दूसरोंकी मेहनत करके कबतक तेरा पेट भरूँगी । तेरा पिता जिस व्यवसायको पकड़ता था उसे कभी नहीं छोड़ता था, उसी व्यवसाय से अपने जीवनको व्यतीत किया करता था, परन्तु तुझे इस बातका कुछ भी खयाल नहीं | अपनी माताको दुःखित देख और उसके इस प्रकारके वचन सुनके वह लड़का बोलामाता तुम खेद मत करो आजसे लेकर मैं अर्थोपार्जनका उपाय करूँगा और पिता के समानही मैं भी जिस व्यवसायको हाथ डालूँगा उसे पूरा किये विना न छोडूंगा । इस प्रकार माताको धीरज देकर घर से बाहर निकल गया । गाँवमें एक ठिकाने बहुत से लोग इकट्ठे होकर बैठे हुए थे, वह भी जड़बुद्धि वहांही जा बैठा । इधर एक कुम्भकार ( कुंभार) का गधा पाँवके पैंखडेको तोड़कर अपने स्थान से भाग निकला, दैवयोग जिधर वे बहुत से मनुष्य बैठे थे उधरही वह गधा दौड़ा जारहा था, पीछेसे कुम्भकार भी आवाज देता हुआ आरहा था, उन बहुतसे आदमियोंको आगे बैठे देखकर कुम्भकार चिल्लाके बोला- अरे भाई ! तुमारेमें जो समर्थ हो मेरे गधेको पकड़ो । यह सुनकर वह

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