Book Title: Parishah Jayi
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Kunthusagar Graphics Centre

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Page 55
________________ xxxxxx परीषह-जयी*kdddddr* - "देवी मैं बड़े संकट में फंस गया हूँ । बौद्ध धर्म पर संकट के बादल मँडरा रहे है । मैं अनुभव कर रहा हूँ कि अकलंक जैसे विद्वान के सामने मैं शास्त्रार्थ नहीं कर पाऊँगा और इससे बौद्ध धर्म का पराजय होगा , मेरी प्रतिष्ठा धूल में मिल जायेगी। "अपनी इष्ट देवी के सामने गिड़ गिड़ाते हुए संघश्री ने अपनी कमजोरी प्रकट की । अपने निवास पर वह देवी का अनुष्ठान करता रहा । __ " संघश्री चिन्ता मत करो । मैं तुम्हें पराजित नहीं होने दूंगी । मैं तुम्हारे स्थान पर स्वयं अकलंक से शास्त्रार्थ करूँगी । परन्तु मेरी एक शर्त होगी । मैं पर्दे के पीछे बैठकर की शास्त्रार्थ करूँगी । " देवी ने संघश्री को सांत्वना देते हुए समझाया । "देवी पर्दे के पीछे कैसे शास्त्रार्थ होगा ? मैं कहाँ बैलूंगा ? " संघश्री ने अपनी दुविधा व्यक्त की। "तुम स्वयं महाराज से कहना कि तुम शास्त्रार्थ पर्दे के पीछे बैठकर करोगे ,और यदि राजा पूछे कि इसका रहस्य क्या है तो उनसे कहना कि शास्त्रार्थ के अन्त में सब कुछ स्पष्ट कर दिया जायेगा । " देवी ने संघश्री को मार्ग बताते हुए सब कुछ समझा दिया । दूसरे दिन संघश्री के इसप्रकार के कथनानुसार पर्दे की व्यवस्था कर दी और संघश्री के आह्वान करने पर देवी प्रस्तुत हुई जिसे की एक घड़े में प्रस्थापित कर दिया गया । शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ । और लगातार छह महीने तक अकलंक देव से संघश्री के स्थान पर देवी तारा ही शास्त्रार्थ करती रही । हार-जीत का फैसला ही नहीं हो पा रहा था । दिन प्रति दिन लोगों में जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी । अकलंक देव को बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि इतने लम्बे समय तक संघश्री कैसे शास्त्रार्थ में टिक सका है । अकलंक देव ने ध्यान करते हुए देवी चक्रेश्वरी का ध्यान किया । देवी ने अकलंक देव को सारी परिस्थिति से अवगत कराया । और कहा "संघश्री की मदद उनकी इष्टदेवी तारा कर रही है । देवी देवताओं को यह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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