Book Title: Panchastikay Parishilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 256
________________ ४९४ पञ्चास्तिकाय परिशीलन (दोहा) जाकै आत्मज्ञान बिन, चित की होड़ न रोक । ता आतम के क्यों मिटै, पुण्य-पाप की धोक । । २४२ ।। ( सवैया इकतीसा ) पंच परमेसुर की भगति धरम राग, तैं मन का पसार नाना रूप पसरै । तातैं सुभ-असुभ है करम का परिवार, आतमीक धरम का सारा रूप खसरै ॥ तातैं राग कनिका भी बन्धन का मूल लसै, मोक्ष का विरोधक है परस रूप भसरै । मोखरूप साधक के बाधक है राग-दोष, जिनराज वानी जानै, राग दोष विसरै ।। २४३ ।। कवि हीरानन्दजी ने उक्त काव्यों में जो कहा है, उसका सार यह है कि जिसके आत्मज्ञान के बिना चित्त की चंचलता नहीं रूकती उसके पुण्य-पाप के परिणाम कैसे रुक सकते हैं । अर्थात् वे पुण्य-पाप में ही अटके रहते हैं। यद्यपि पंचपरमेष्ठी की भक्ति रूप धर्मानुराग होने से भक्ति का प्रसार नानारूप में होता रहता है। तथापि मोक्ष साधक के वह राग भी बाधक होता है। इसप्रकार उक्त गाथा में टीका एवं पद्य में यही कहा गया है कि ह्र जो व्यक्ति आत्मज्ञान से शून्य राग के सद्भाव के कारण चित्त भ्रम से रहित नहीं होता, वह निःशंक नहीं रह सकता। तथा जो निःशंक नहीं होता उसे शुभाशुभ कर्म का संवर नहीं हो सकता। अतः आत्मार्थी को चित्त भ्रम से रहित होना चाहिए। (256) गाथा - १६९ विगत गाथा में कहा गया है कि अनर्थ परम्पराओं का मूल आत्मज्ञान शून्य रागादि विकल्प ही है। प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्न रागरूप क्लेश सम्पूर्ण नाश करने योग्य है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र तम्हा णिव्वुदिकामो सिंगो णिम्ममो य हृविय पुणो । सिद्धेस कुणदि भत्तिं णिव्वाणं तेण पप्पोदि । । १६९ । । (हरिगीत) निःसंग निर्मम हो मुमुक्षु सिद्ध की भक्ति करें । सिद्धसम निज में रमन कर मुक्ति कन्या को वरे || १६९ ।। मोक्षार्थी जीव निःसंग और निर्मम होकर सिद्धों की भक्ति करता है अर्थात् शुद्धात्म द्रव्य में स्थिरता रूप पारमार्थिक सिद्ध भक्ति करता है, इसलिए वह निर्वाण को प्राप्त करता है। आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न 'रागादि परिणति होने से चित्त भ्रमित होता है । चित्त भ्रमित होने से कर्मबन्ध होता है' ह्र ऐसा पहले कहा गया है, इसलिए मोक्षार्थी को कर्मबन्ध के मूल कारण भ्रम को जड़मूल से नष्ट कर देना चाहिए। यह चित्त भ्रम रागादि परिणति का भी मूलकारण है। चित्तभ्रम का निःशेष नाश किया जाने से जिसे निःसंगता और निर्मोह परिणति की प्राप्ति हुई है, वह जीव शुद्धात्मद्रव्य में विश्रान्तिरूप पारमार्थिक सिद्ध भक्ति धारण करता हुआ स्व- समय की प्रसिद्धिवाला होता है । इसकारण वह जीव कर्मबंध का निःशेष नाश करके सिद्धि को प्राप्त करता है। कवि हीरानन्दजी काव्य की भाषा में कहते हैं ह्न

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