Book Title: Osvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Author(s): Mahavirmal Lodha
Publisher: Lodha Bandhu Prakashan

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Page 441
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 412 सांस्कृतिक परिवर्तन के लिये जैनमत की सांस्कृतिक प्रयोगशाला बनाया । इस सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया में अनेक हिन्दूमतावलम्बी और शैव मतावलम्बी जैनाचार्यों के सम्पर्क में आए, उनमें अधिकता क्षत्रियों और राजपूतकाल में राजपूतों की रही । सांस्कृतिक परिवर्तन की इस प्रक्रिया में जैनाचार्यों ने क्षत्रियों और राजपूतों का केवल वैयक्तिक रूपान्तरण ही नहीं, सांस्कृतिक रूपान्तरण किया । www.kobatirth.org क्षत्रिय और राजपूत : सांस्कृतिक संदर्भ इस देश के इतिहास में क्षत्रियों की गौरवपूर्ण परम्परा मिलती है। क्षत्रियों ने सदैव अपने बाहुबल से आर्य जाति की रक्षा के दायित्व का निर्वहन किया। पौराणिक साहित्य और भारतीय इतिहास क्षत्रियों की वीरता से आद्यन्तर भरे पड़े हैं । क्षत्रियों की संस्कृति - गुण कर्म और स्वभाव आदि का वेदों में वर्णन मिलता है। ऋग्वेद के अनुसार क्षत्रिय नियमपालक, यज्ञ सम्पादक, महा तेजस्वी, यज्ञों के सेवक, प्रतिदिन स्वयं यज्ञ में हवन करने वाले, सत्य सेवक, द्रोहहित, युद्ध में शत्रुसंहारक वीर पुरुष माने गये हैं।' ये क्षत्रिय नियमपालन करते हुए सत्य के अनुसार चलते हुए पहले क्षात्रतेज प्राप्त करते हैं और फिर उत्तमकर्म करते हुए साम्राज्य के लिये यत्न करते हैं। अथर्ववेद में प्रार्थना की गई है कि हे इन्द्र ! इन क्षत्रियों में वृद्धि कर, इनकी भुजाओं को बलिष्ठ बना। इनके शत्रुओं को बलहीन कर दे, जिससे ये शत्रु नष्ट कर सकें । 2 मनुस्मृति के अनुसार न्याय से प्रजा की रक्षा करना, प्रजा का पालन करना, विद्या, धर्म और सुपात्रों की सेवा में धन व्यय करना, अग्निहोत्री यज्ञ करना, शास्त्रों को पढ़ना-पढ़ाना, जितेन्द्रीय रहकर शरीर और आत्मा को बलसम बनाना क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्म है। 3 श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार शौर्य, तेज, धैर्य, दक्षता और युद्ध न भागने का स्वभाव, दान और ईश्वर भक्ति- ये भाव क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण और कर्म है । ' 1. ऋग्वेद 10-66-8 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही जाति कालांतर में राजपूत काल में राजपूत कहलाई । क्षत्रियों के संस्कार इनको वंशानुक्रम में मिले, किन्तु समय से उनकी अस्मिता में अन्तर आया। 2. अथर्ववेद 4-4 धृतव्रत, यज्ञ निष्कृतो बृह दिना अध्व राणर्मायाश्रयः । अग्नि होता ऋत सायों अदु होसो असृजनु वृत्र तूये । इममिन्द्र वर्धम क्षत्रियेम इमें विशामेक वृष कृणुत्वम | निरामित्रा नक्ष्णुआव सर्वास्तान रध्यारम् अहभुत्तरेशु ॥ 3. मनुस्मृति, 45 4. श्रीमद्भागवत गीता 4/43 शौर्य तेजो धृति रयि युद्धे चाप्यापलायनम् । दानभीश्वर भावस्य क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥ For Private and Personal Use Only

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