Book Title: Om Namo Siddham
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 7
________________ सभी भव्य जीव इस अनमोल कृति का स्वाध्याय चिंतन-मनन करके अपने सिद्ध स्वरूप शुद्धात्म स्वभाव का अनुभव करें और मोक्षमार्गी बनें, इन्हीं मंगल भावनाओं के साथ नमस्कार हो शब्द ब्रह्म को, मन वच तन करके। या प्रसाद कर ब्रह्म निहारू, मेरा मुझ करके ॥ अलमिति विस्तरेण.... पं. रतनचंद्र शास्त्री बीना दिनांक -२७-६-२००२ प्रस्तुत कृति में मंत्र का स्वरूप, मंत्र जप के भेद, सिद्ध परमात्मा का स्वरूप, सिद्ध स्वभाव की महिमा, मंत्र जप की विशेषता,प्राचीन शिक्षा में ॐ नम: सिद्धम् का महत्वपूर्ण स्थान, उसके अपभ्रंश होने का कारण आदि अनेक विषयों का विश्लेषण करके सिद्ध परमात्मा के समान अपने सिद्ध स्वभाव की महिमा और बहुमान को जगाया है। ॐ नम: सिद्धम् मंत्र का स्मरण करते हुए अपने सिद्ध स्वभाव का अनुभव होना चाहिये, यही इस मंत्र का वास्तविक अभिप्राय है। व्याकरण के अनुसार चतुर्थी विभक्ति के प्रयोग में जब ॐ नम: सिद्धेभ्य: कहा जाता है, इस मंत्र के द्वारा कार्य परमात्मा सिद्ध दशा को प्राप्त हुए अनंत सिद्ध भगवंतों को नमस्कार किया जाता है जबकि ॐ नम: सिद्धम् मंत्र में सिद्धम् द्वितीयांत एक वचन होने से कारण परमात्मा स्वरूप आत्मा के सिद्ध शुद्ध स्वभाव को नमस्कार किया गया है। विभिन्न आध्यात्मिक और व्याकरण के तथ्यों को स्पष्ट करते हुए इस कृति में ऐतिहासिक प्रमाणों का उल्लेख अपने आपमें अत्यंत महत्वपूर्ण है। भगवान ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों को अक्षर विद्या और अंक विद्या का ज्ञान नम: सिद्धम् कहते हुए प्रदान किया था। इस प्रकार अनेक उदाहरणों सहित अनेक प्रचीन ग्रंथ एवं अनेक विद्वान, लेखकों, विचारकों के चिंतनपूर्ण तथ्यों का उल्लेख करते हुए ॐनमः सिद्धम् की प्राचीनता को सप्रमाण सिद्ध किया गया है। शिक्षा के क्षेत्र में प्रचीन समय में यह मंत्र विद्यालयों में पढ़ाया जाता रहा और आगे चलकर वह ओनामा सी धम् के रूप में प्रचलित हुआ। पाटी की पढ़ाई का क्या अर्थ है, इस प्रकार के अनेक रहस्यों को स्पष्ट करते हुए श्री बसंत जी महाराज ने श्री ज्ञान समुच्चय सार जी ग्रंथ के आधार पर ५२ अक्षरों का आध्यात्मिक विवेचन गाथा और अर्थ सहित प्रस्तुत किया है। अत्यन्त प्रसन्नता और गौरव का विषय यह है कि श्री बसंत जी के संस्कृत व्याकरण के अध्ययन में सहभागी बनने का सौभाग्य तारण समाज बीना को प्राप्त हुआ। उन्होंने सन् १९८० से १९८२ के मध्य साहित्याचार्य पं. श्री जानकी प्रसाद जी शास्त्री द्वारा व्याकरण का अध्ययन किया। अत्यन्त गौरव का अनुभव हो रहा है कि पं. श्री जानकी प्रसाद जी शास्त्री ने इस अन्वेषण पूर्ण कृति का संपादन करके इसे व्यवस्थित और सुन्दरतम स्वरूप प्रदान किया है। इस मंत्र से संबंधित शोध खोज का शुभारभ सन् १९९३ में बीना नगर से प्रारंभ हुआ था और उसकी पूर्णता भी बीना में बाल ब. श्री बसंत जी महाराज के वर्षावास सन २००२ के प्रवास में हुई। तारण समाज बीना के लिए यह सौभाग्य का विषय है। सुख प्राप्ति का मूल मंत्र विनय मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है, विनम्रता सुख की सहेली है। विनय से मोक्ष का द्वार खुलता है। अहंकार जीव को पतन की ओर ले जाता है, अज्ञान से अहंकार उत्पन्न होता है, अहंकार ही संसार की जड़ है। अहंकार की मदिरा में उन्मत्त व्यक्ति दूसरे की बात नहीं सुनना चाहता, अहंकार ऐसा नशा है जिसमें उन्मत्त होकर मनुष्य माता-पिता, गुरू और धर्म की भी विनय नहीं करता उसे दूसरे के गुण भी दिखाई नहीं देते। अहंकार से विनय नष्ट होती है, विनयवान झुकता है, अहंकारी अकड़ता है। कुछ प्राप्त करने के लिये झुकना अनिवार्य है। विनय से विद्या प्राप्त होती है, विद्या से ज्ञान मिलता है और ज्ञान ही सच्चे सुख की प्राप्ति का उपाय है। अहंकार तोड़ता है, विनम्रता जोड़ती है। अहं से अधर्म और विनय से धर्म का प्रादुर्भाव होता है, अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव को अनन्तानुबंधी मान होता है। सम्यकदर्शन होने पर अनन्तानबंधी मान का अभाव और उत्तम मार्दव धर्म प्रगट होता है। ११

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