Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 132
________________ २६२ नियमसार अनुशीलन आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा और उसकी टीका का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___ “यहाँ परमतत्त्व के वास्तव में विकारसमूह का अभाव होने के कारण निर्वाण है - ऐसा कहा है। परमतत्त्व विकाररहित होने से द्रव्यअपेक्षा से सदा मुक्त ही है; अतः मुमुक्षुओं को ऐसा समझना चाहिए कि विकाररहित परमतत्त्व के सम्पूर्ण आश्रय से ही वह परमतत्त्व अपनी स्वाभाविक मुक्तपर्याय रूप से परिणमित होता है अर्थात् आत्मा की श्रद्धा, ज्ञान और आचरण से ही सिद्धपद की प्राप्ति होती है। देखो ! यहाँ परमतत्त्व का वर्णन चलता है। जिसे हित करना हो और शान्ति एवं स्वतंत्रता चाहिये; उसे क्या करना चाहिए - इस बात को यहाँ बताते हैं । जगत में अनन्त पदार्थ हैं; उन्हें किसी ने उत्पन्न नहीं किया है और उनका नाश भी नहीं होता है। ज्ञानस्वरूपी आत्मा भी नया उत्पन्न नहीं होता है और उसका नाश भी नहीं होता है। आत्मा परमतत्त्व है। शरीर, वाणी और मन - आत्मतत्त्व नहीं हैं। पुण्य-पाप के भाव कृत्रिम हैं। वे आत्मा में से निकल जाते हैं; अतः पुण्यपापरूप मैं नहीं हूँ। मैं तो विकाररहित चैतन्यमूर्ति हूँ - ऐसा ज्ञान करना ही शान्ति का प्रथम उपाय है। जिसप्रकार चन्द्र, सूर्य कभी मरते नहीं हैं: उसीप्रकार आत्मा भी मरता नहीं है। शरीर के संयोग को जन्म और उसके वियोग को मरण कहते हैं। वे जन्म-मरण आत्मा के नहीं होते हैं। सिद्धों के भी मरण नहीं है। जगत में जो वस्तु होती है, वह कभी कहीं जाती नहीं है और जो नहीं होती है, वह उत्पन्न नहीं होती है। ऊपर कथित लक्षणों से लक्षित, अखण्ड, विक्षेपरहित परमतत्त्व के सदा ही मोक्षतत्त्व है। आत्मा ज्ञानलक्षण से पहचाना जाता है। जिसप्रकार शक्कर की गागर शक्कर से भरी है; उसीप्रकार भगवान आत्मा ज्ञान से भरा है। इन्द्रियों का विषय खण्ड-खण्ड है। उनसे रहित आत्मा अखण्ड १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४८९ २. वही, पृष्ठ १४९१ ३. वही, पृष्ठ १४९१ ४. वही, पृष्ठ १४९२ गाथा १७९ : शुद्धोपयोगाधिकार २६३ है। चिदानन्द आत्मा में पुण्य-पाप का विकल्प नहीं है। वह सदा मुक्त ही है। जो वस्तु, स्वरूप से मुक्त नहीं है, उसकी मुक्ति नहीं होती है। ज्ञानमूर्ति आत्मा तो सदा मुक्त ही है; क्योंकि वह मुक्तस्वरूप ही है। उसकी दृष्टि करने से मुक्ति होती है।' यहाँ मूल गाथा में मो मात्र यही कहा गया है कि परमतत्त्व में सांसारिक सुख-दुःख, जन्म-मरण तथा पीड़ा और बाधा नहीं है। अन्तिम पद में कहा कि ऐसा आत्मा ही निर्वाण है; किन्तु टीका में उक्त परमतत्त्व के प्रत्येक विशेषण को सकारण समझाया गया है। अन्त में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उक्त विशेषणों से विशिष्ट परमतत्त्व ही निर्वाण है। गाथा और टीका में परमतत्त्व की उक्त विशेषताओं में पूर्णतः स्पष्ट हो जाने के उपरान्त स्वामीजी उक्त सभी विशेषणों को उक्त परमतत्त्व के साथ-साथ निर्वाण पर भी घटित करते गये हैं।।१७९|| ____ इसके बाद टीकाकार मुनिराज दो छन्द लिखते हैं, जिनमें से पहला छन्द इसप्रकार है तू (मालिनी) भवभवसुखदुःखं विद्यते नैव बाधा जननमरणपीडा नास्ति यस्येह नित्यम् । तमहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि स्मरसुखविमुखस्सन्मुक्तिसौख्याय नित्यम् ।।२९८।। (वीर) भव सुख-दुख अर जनम-मरण की पीड़ा नहीं रंच जिनके। शत इन्द्रों से वंदित निर्मल अदभुत चरण कमल जिनके। उन निर्बाध परम आतम को काम कामना को तजकर। नमन करूँ स्तवन करूँ मैं सम्यक् भाव भाव भाकर||२९८|| इस लोक में जिसे सदा ही भव-भव के सुख-दुख नहीं हैं, बाधा नहीं है, जन्म-मरण व पीड़ा नहीं है; उस कारणपरमात्मा एवं कार्यपरमात्मा को कामसुख से विमुख वर्तता हुआ मुक्तिसुख की प्राप्ति हेतु १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४९२ २. वही, पृष्ठ १४९३ 132

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