Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 207
________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000 0000000000000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000001 _भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार जले भूजे बीजों को बोने से अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, उसी प्रकार जिसके कर्म रूपी बीज नष्ट हो गये हैं, सम्पूर्ण क्षय हो गये हैं, उस अवस्था में उसके भव रूपी अंकुर पुनः उत्पन्न नहीं होते हैं। यही कारण है कि मुक्तात्मा फिर कभी मुक्ति से लौटकर संसार में नहीं आते। ॥श्रीगौतमउवाच|| मूल: कहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पाइट्ठिया। कहिं बोदिं चइताणं, कत्य गंतूण सिज्झई||२५| छायाः क्व प्रतिहताः सिद्धा, क्व सिद्धाः प्रतिष्ठिताः। क्व शरीरं त्यक्त्वा, कुत्र गत्वा सिद्ध्यन्तिः / / 25 / / अन्वयार्थ : हे भन्ते! (सिद्धा) सिद्ध जीव (कहिं) कहां पर (पडिहया) प्रतिहत हुए हैं? (कहिं) कहाँ पर (सिद्धा) सिद्ध जीव (पइट्ठिया) रहे हुए हैं? (कहिं) कहां पर (बोंदि) शरीर को (चइत्ता) छोड़ कर (कत्थ) कहां पर (गंतूण) जाकर (सिज्झई) सिद्ध होते हैं। भावार्थ : हे प्रभो! जो आतमाएँ, मुक्ति पा गयी हैं, वे कहां तो प्रतिहत हुई हैं? कहाँ ठहरी हुई हैं? और उन्होंने मानव शरीर कहां पर छोड़ा है? और कहां जाकर वे आत्माएँ सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होती हैं? ॥श्रीभगवानुवाच| मूल : अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे अपइट्ठिया। इह बोदिं चइताणं तत्य गंतूणं सिज्झाई||२६| छायाः अलोके प्रतिहृताः सिद्धाः, लोकाग्रे च प्रतिष्ठिताः / इह शरीरं त्यक्त्वा, तत्र गत्वा सिद्ध्यन्ति।।२६।। ____ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सिद्धा) सिद्ध आत्माएँ (अलोए) अलोक में तो (पडिहृया) प्रतिहत हुई हैं। (य) और (लोयग्गे) लोकाग्र पर (पइट्ठिया) ठहरी हुई हैं। (इह) इस लोक में (बोदि) शरीर को (चइत्ता) छोड़कर (तत्थ) लोक के अग्रभाग पर (गंतूण) जाकर (सिज्झई) सिद्ध हुई हैं। भावार्थ : हे गौतम! जो आत्माएँ सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों द्वारा प्राप्त सिद्धि से मुक्त होती हैं, वे शीघ्र ही स्वाभाविकता से ऊर्ध्वलोक को गमन कर अलोक से प्रतिहत होती हैं / अर्थात् अलोक में गमन करने में सहायक वस्तु धर्मास्तिकाय होने से लोकाग्र में ही गति रुक जाती है, तब वे सिद्ध 00000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/204 14000000000 00000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only 000000000000 www.jainelibrary.org

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