Book Title: Nijdosh Darshan Se Nirdosh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 43
________________ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! ५९ मोक्ष में जानेवाला खुद की भूल देखा करता है और दूसरों की भूल देखनेवाला संसार में भटका करता है। कछ परायों की भल देखते होंगे, उसमें परेशान मत होना। मुआ, वह यहाँ भटकनेवाला है, इसलिए वह देखता ही रहेगा न! वह भटकनेवाला है। ऐसा नहीं करेगा तो फिर वह भटकेगा किस तरह? आ जाओ, एक बात पर यहाँ पर यदि आपको पसंद हो तो दोषित देखते रहना। संसार पसंद हो तो जगत् को दोषित देखते रहना और संसार पसंद नहीं तो एक किनारे पर आ जाओ। एक बात पर आ जाओ। यदि संसार पसंद नहीं हो, तो संसार दोषित नहीं है ऐसा आप देखते रहना। मेरे दोष के कारण ही यह खड़ा हुआ है, एक किनारे तो लाना पड़ेगा न? विरोधाभास कब तक चलेगा? महावीर भगवान को कोई दोषित लगा नहीं। ऊपर से देव आकर परेशान कर गए, तब भी उन्हें देव दोषित नहीं लगे। पड़ा ही होता है भीतर वह दोष जगत् में दोषित नहीं दिखें। निर्दोष दिखने चाहिए। प्रश्नकर्ता : ऐसा तो है न कि हम जिन्हें दोषित देखते हैं, जिस दृष्टि से दोष देखते हैं, वे दोष हममें भरे पड़े हैं। दादाश्री : इसलिए ही दिखते हैं। प्रश्नकर्ता : और जितने अंश तक दोष का कम होना हुआ, उतने अंश तक दृष्टि स्वच्छ होती है क्या? दादाश्री : हाँ, उतना चोखा होता है। खुद का गटर दुर्गंध दे और दूसरों का गटर धोने जाए दोष तो सभी के गटर हैं। ये बाहर के गटर हम खोलते नहीं हैं। इस छोटे बच्चे को भी वह अनुभव होता है। यह रसोईघर रखा तो गटर तो होना ही चाहिए न! पर उस गटर को खोलना नहीं। किसीमें कुछ दोष ६० निजदोष दर्शन से... निर्दोष! होते हैं। कोई चिढ़ता है, कोई हड़बड़ाता घूम रहा होता है, उसे देखना, वह गटर खोला कहा जाता है। उसके बदले तो गुण देखना अच्छा है। गटर तो अपना खुद का ही देखने जैसा है। पानी भर गया हो तो खुद का गटर साफ़ करना चाहिए। यह तो गटर भर जाता है, पर समझ में नहीं आता ! और समझ में आए, फिर भी करे क्या? अंत में आदत हो जाती है उसकी। उसके कारण तो ये रोग खड़े हुए हैं, शास्त्र पढ़कर गाते रहते हैं कि किसीकी निंदा मत करना, पर निंदा तो चलती ही रहती है। किसीका जरा-सा भी उल्टा बोले कि उतना नुकसान हुआ ही! ये बाहरवाले गटरों के ढक्कन कोई खोलता नहीं है। पर लोगों के गटरों के ढक्कन खोलते रहते हैं। एक आदमी संडास के दरवाजे को लातें मार रहा था। मैंने कहा, 'क्यों लात मारते हो?' तब कहे कि, खुब साफ करता हैं फिर भी दुर्गध मारता है।' बोलो, अब यह कितनी अधिक मुर्खता कहलाएगी? संडास के दरवाजे को लातें मारें फिर भी दुर्गध मारे, तो उसमें भूल किसकी? प्रश्नकर्ता : लातें मारनेवाले की। दादाश्री : कितनी बड़ी भूल कहलाए न? कोई दरवाजे का दोष है बेचारे का? ये लातें मार-मारकर जगत् सारा, दुर्गंध को साफ करने जाता है। पर वह संडास के दरवाजे को लात मारकर खुद को उपाधी होती है और दरवाज़े भी टूट जाते हैं। आपको तो हम क्या कहते हैं कि इस शरीर के जो-जो भी दोष हों, मन के दोष हों, उतने आपको दिखें तब आप छटे। दसरा, आपको दोषों को निकालने के लिए माथाकट नहीं करनी है, या संडास का दरवाजा पीटते रहने की जरूरत नहीं है। संडास के दरवाजे को लातें मारें तो उसकी दुर्गध मिट जाएगी? क्यों नहीं मिटेगी? उसने लात मारी फिर भी नहीं मिटेगी? शोर मचाएँ तो? प्रश्नकर्ता : नहीं मिटती। दादाश्री : संडास को कोई असर नहीं होता न? वैसे ही ये लोग माथाकूट करते हैं, बिना काम की माथाकूट! उसी प्रकार ये नवटाँक भी

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