Book Title: Nijdhruvshuddhatmanubhav
Author(s): Veersagar, Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 53
________________ .. (39) सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो / समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुध्दोवओगो त्ति // 14 // - यहाँ तो समण को याने मुनि को शुध्दोपयोगी कहा है और आप शुध्दोपयोग से चतुर्थ गुणस्थान प्रगट होता है, ऐसा कहते हो / वह कैसे ? . उत्तर - शुध्दोपयोग से ( शुध्दात्मानुभूति से) चतुर्थ गुणस्थान प्रकट होता है इस में बाधा आती नहीं, क्योंकि चतुर्थगुणस्थान में जघन्य शुध्दात्मानुभूति है, और वह शुद्धात्मानुभूति देश विरत में मध्यम शुद्धात्मानुभूति है, और उत्कृष्ट सकलसंयमी को होती है। इस प्रकार का जो कथन किया है वह पूर्वापर आचार्यों के कथन को वाधा नहीं देता / शुध्दात्मानुभूति से ( शुध्दोपयोग से) चतुर्थ गुणस्थान प्रगट होता है; यह न मानने से क्या बाधा आती है यह पूर्व में विवेचन करके दिखाया है / 20) शंका - यदि चतुर्थगुणस्थान में शुध्दात्मानुभव होता है, तब कोई व्रती नहीं बनेंगे? ' उत्तर - जिस व्यापार से आप को लाभ होता है वह व्यापार आप ज्यादा करते हो / जिस क्रिया से आप को आनंद मिलता है वह क्रिया यह जीव अपने आप बार-बार करता है / ज्यों-ज्यों परमानंद मिलेगा त्यों-त्यों आकुलता कम-कम हो जाती है / ज्यों-ज्यों शुध्दात्मानुभव होगा त्यों-त्यों . अशुध्दात्मानुभव ( विषयकषायभाव ) दूर होता ही है। ... देखो श्री पूज्यपादाचार्यजी इष्टोपदेश में लिखते हैं कि - . यथा यथा समायति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् / तथा तथा न रोचन्ते विषयाः सुलभाः अपि // 37 / / अर्थ - जैसे-जैसे शुध्दात्मानुभव ( शुध्दोपयोग ) होता है वैसे-वैसे विषय सुलभ होते हुए भी विषयों में रुचि नहीं रहती।

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