Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 426
________________ पाँच समवाय (सोरठा) प्रथम चार समवाय, उपादान की शक्ति हैं। . अरु पंचम समवाय, है निमित्त परवस्तु ही।। (वीरछन्द) गुण अनन्तमय द्रव्य सदा है, जो हैं उसके सहज स्वभाव। जैसे गुण होते हैं, वैसे कार्यों का हो प्रादुर्भाव।। जैसे तिल में तेल निकलता, जड़मय परिणति हो जड़ से। चेतन की परिणति चेतनमय, जड़मय परिणति हो जड़ से।। सब द्रव्यों में वीर्य शक्ति से, होता है प्रतिपल पुरुषार्थ। अपनी परिणति में द्रवता है, उसमें तन्मय होकर अर्थ।। निज स्वभाव सन्मुख होना ही, साध्य-सिद्धि का सत् पुरुषार्थ। पर-आश्रित परिणति में होता, बन्ध भाव दुःखमय जो व्यर्थ।। अपने-अपने निश्चित क्षण में, प्रतिपल होती हैं पर्याय। हैं त्रिकाल रहती स्वकाल में, कहते परम पूज्य जिनराय।। है पदार्थ यद्यपि परिणमता, इसीलिए कर्ता होता। किन्तु कभी भी पर्यायों का, क्रम विच्छेद नहीं होता।। उभय हेतु से होने वाला, कार्य कहा जिसका लक्षण। वह भवितव्य अलंघ्य शक्तिमय, ज्ञानी अनुभवते प्रतिक्षण।। जैसा जाना सर्वज्ञों ने, वैसा होता है भवितव्य। अनहोनी होती न कभी भी, जो समझे वह निश्चित भव्य।। प्रति पदार्थ में है पुरुषार्थ, स्वभाव काललब्धि अरु कार्य। कार्योत्पत्ति समय में जो, अनुकूल वही निमित्त स्वीकार।। उपादान की परिणति जैसी, वैसा होता है उपचार। सहज निमित्तरु नैमित्तिक, सम्बन्ध कहा जाता बहुबार।। * **

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