Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 16
________________ ६. व्यवहारनय के विषय की सत्ता को स्वीकार करना अथवा उसके माध्यम से परमार्थभूत वस्तु को समझना - यही व्यवहारनय को ग्रहण है और उसी समय व्यवहारनय स्वयं परमार्थभूत वस्तु नहीं है - ऐसा जानना व्यवहारनय का त्याग है। ७. समयसारादि निश्चयनय-प्रधान अध्यात्म ग्रन्थों के पठन-पाठन को निश्चयाभास और गोम्मटसारादि व्यवहारनय-प्रधान ग्रन्थों के पठनपाठन को व्यवहाराभास कहकर, इनके पठन-पाठन का निषेध करके जिनवाणी का निषेध करने से महापाप का बन्ध होता है। ८. स्वच्छन्दता का पोषण, अभिप्राय का दोष है, आचरण का नहीं, क्योंकि जिनागम के आधार पर विषय-कषायों को पुष्ट करने की अर्थात् उसे दोष -रूप न मान कर, उचित ठहराने की वृत्ति ही निश्चयाभास है।' ९. अनुभूति में निश्चयनय की मुख्यता होने पर भी कथन में व्यवहारनय की मुख्यता होती है; अतः हमें लोक-व्यवहार में निश्चयनय की भाषा का प्रयोग करने से बचना चाहिए। १०. पूज्य गुरुदेवश्री की सत्य-निष्ठा एवं मोक्षमार्ग की निश्छल निरूपणा ने लाखों पात्र जीवों को मोक्षमार्ग पर चलने की राह बताई है; यही कारण है कि वे युगपुरुष, हम सबके आदर्श बन गये हैं। ११. संसारी जीव की पर्याय में रागादि तथा मतिज्ञान आदि निश्चयनय से हैं, लेकिन आत्मा (त्रिकाली स्वभाव) में उन्हें व्यवहारनय से कहा गया है। १२. अनादिकाल से इस जीव को कभी शुद्धनय का पक्ष भी नहीं आया, शुद्ध-नयरूप परिणमन की तो बात ही दूर रही। 2. वही, पृष्ठ 76 5. वही, पृष्ठ 82 3. वही, पृष्ठ 77 6. वही, पृष्ठ 89 1. नय-रहस्य, पृष्ठ 65 4. वही, पृष्ठ 79 7. वही, पृष्ठ 112 नय-रहस्य

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