Book Title: Murkhshatakam
Author(s): Hiralal Hansraj Shravak
Publisher: Hiralal Hansraj Shravak
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करखं, करराव, अने अनुमोदवा रूप त्रण करणवडे अने मन, वचन, कायाना जोगावडे अभ्यंतर अने वाहिर एवा मर्वे संगोने तुं त्याग कर. ॥ १३१॥
संग निमितं मारई॥ अलियं करेइ चोरिकं ॥
सेवा मेहुण मिचं ॥ अप्परिमाणं कुण जीवो ॥ १३२॥ प्रसंग पडे संगना हेतुथी जीवने मारे, जुहूं बोल, चोरी करे, मथुन सेवे, अन जीव इच्छानु अपरिमाण करे (परिग्रहनु परिमाण न करे)॥ १३२ ॥
संगो महा जयं जं ॥ विदेमिन सावरण संन्नेणं ॥
पुत्तेण दिए अचमि ॥ मुणिव कुंचिएण जदा ॥ १३३ ॥ संग मोटा भयर्नु कारण छे, केमके पुत्रे द्रव्य चोरे छते श्रावक कुंचिक शेठे मुनिपती रूपीने वहेमथी | पीडा उपजावी ॥ १३३ ॥
सव्वग्गंथ विमुक्को ।। सीनून पसंतचित्तो य ॥
जं पावइ मुत्तिसुहं ॥ न चक्कवट्टी वि तं लदइ॥ १३४॥ बाझ अने अभ्यंतर परिग्रहयी मुक्त, शीतल परिणामवालो, अने उपशांत चित्तवालो एवो पुरुष जेवू निलाभपणान सुख पामे ते मुख चक्रवर्ति पण न पामे ॥ १.३४ ॥
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