Book Title: Munidwaya Abhinandan Granth
Author(s): Rameshmuni, Shreechand Surana
Publisher: Ramesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP

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Page 427
________________ जैनधर्म में ज्योतिष 0 मदनमोहन जन 'पवि' जैनधर्म अत्यन्त विशद, प्राचीनतम है। ज्योतिष का अभिन्न सम्बन्ध धर्मान्तर्गत रहा है। ज्योति प्रदान करने वाले सूर्य चन्द्रादि ग्रहों का असर अनादिकाल से होता रहा है। पृथ्वी स्वयं सूर्य का एक टुकड़ा है । सदियों के बाद शीतल बना । ज्वार, भाटा आदि ग्रहों के ही परिणाम हैं । वर्षागमन सूर्य के पूर्ण तपित होने पर होता है। जैन मतानुसार ३२ सूत्र, महावीर स्वामी की वाणी का सार है। इनमें चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि मुख्य ग्रहादि विवेचनात्मक सूत्र हैं। सूर्य-चन्द्र का विस्तृत वर्णन है। गति, संख्या प्रभावादि का वर्णन है। जैनधर्म में अनेक सूर्य-चन्द्रों, नक्षत्रों, तारों की प्रामाणिकता है। जम्बूद्वीप भरतक्षेत्र में दो सूर्य व दो चन्द्रों की कल्पना की गई है। दोनों चर ग्रह हैं। वैज्ञानिकों के हिसाब से पृथ्वी चर है । चन्द्र-सूर्य स्थिर हैं । वैज्ञानिकों ने पृथ्वी को गोल माना है। जैनधर्म में थाली के समान चपटी माना गया है। सूर्य उदयास्त के समय सूर्य की गति ६ हजार योजन की होती है। एक मुहूर्त में सूर्य ५००० योजन से कुछ अधिक चलता है। दो सूर्य सम्पूर्ण मंडल पर एक अहोरात्रि में घूमते हैं। नक्षत्रादि के तारे, आकार, गोत्रादि निम्न प्रकार हैंनक्षत्र नाम तारे आकार गोत्र १ अश्विनी अश्व स्कंधाकार अस्वायन २ भरणी स्त्री योनि आकार भगवेश ३ कृत्तिका गृहाकार अग्निवेशायन ४ रोहिणी रथाकार गौतम गोत्र ५ मृगसिर मृगमस्तकाकार भारद गोत्र ६ आर्द्रा रुधिर बिन्दुवत् लोहियाणस ७ पुनर्वसु वसिष्ठ ८ पुष्य वर्धमानाकार उपचायणस & आश्लेषा ध्वजाकार मांडवायस १० मघा नक्षत्राकार पिंगला ११ हस्त हथेली आकार कोसिय १२ चित्रा महुए के फूल दभियायण १३ स्वाति खीलाकार चामर छत्र १४ विशाखा सादपिणी अंगायणस १५ अनुराधा एकावली गोवालयणस १६ ज्येष्ठा गजदंताकार तिगच्छायस १७ मूल बिच्छु आकार कात्यायणस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org m mw or in an a चूलाकार m w a on or of x m

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