Book Title: Mokshmarg Ki Purnata
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Smarak Trust

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Page 12
________________ द्रव्य का स्वरूप द्रव्य का स्वरूप द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं। इस विश्व में जाति अपेक्षा छह द्रव्य पाये जाते हैं - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल। तथा संख्या अपेक्षा से जीव द्रव्य अमंत हैं, पुद्गल द्रव्य अनन्तानन्त हैं, धर्म-अधर्म व आकाश द्रव्य एक-एक हैं तथा काल द्रव्य लोकप्रमाण असंख्यात हैं। यह विश्व अनादि-अनंत है, प्रत्येक द्रव्य अनादि-अनंत है और प्रत्येक द्रव्य के प्रत्येक गुण भी अनादि-अनंत ही है। जो अनादिअनन्त होता है, वह नियम से अकृत्रिम, स्वयंभू व सहज/स्वतःसिद्ध होता है। उसका उत्पादक/कर्ता कोई भी नहीं होता। जिसका कोई उत्पादक नहीं होता, उसका कोई रक्षक, भक्षक या संहारक भी नहीं होता। ___ जो दर्शन, ईश्वर को जगत का कर्ता मानते हैं; वे प्रत्येक द्रव्य व उनके प्रत्येक गुण का कर्ता भी ईश्वर को ही मानते हैं। ऐसी मान्यता वाले लोग विश्व में जो भी नयी-नयी अवस्थाएँ (पर्यायें) होती हैं, उनका कर्ता भी ईश्वर को ही मानते हैं। जिसप्रकार एक घड़े पर दूसरा घड़ा रखना हो; तब पहला घड़ा सीधा रखा हो तो उस पर दूसरा-तीसरा घड़ा भी सीधा ही रखा जायेगा तथा यदि पहला घड़ा उल्टा रखा हो तो आगे के सभी घड़े भी उल्टे ही रखे जायेंगे। उसीप्रकार विश्व, द्रव्य-गुण-पर्याय - इनमें से किसी एक का भी कर्ता किसी अन्य को मान लिया जाय तो सभी का कर्ता अन्य को मानना अनिवार्य हो जायेगा, जो कि वस्तुव्यवस्था से सर्वथा विपरीत है।

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