________________
( १३० )
फिर अपने कर्मानुसार गति होती है । कहां उनका संयोग होगा ? अग्नि में देह जलाने की अपेक्षा तप में अपने कर्म दग्ध करो यही उत्तम मार्ग है ।" रुप्पिणी समझी। उसका मोहावेश मंद हुआ। उसने पिता की बात मान ली । वह सती नहीं हुई ।
वह पिता के यहाँ रहने लगी । तप करने लगी । पिता की प्रेरणा से वह पुरुष - वेश में रहने लगी। क्योंकि पिता की एक मात्र सन्तान वही थी । पिता का राज्य उसे ही सम्हालना था । उसने शासन करने योग्य शिक्षण पाया । एक दिन पिता परलोक प्रयाण कर गये । तब रुप्पिणी ने शासन की बागडोर अपने हाथों में ली। वह रुप्पी राजा के नाम से प्रसिद्ध हो गयी ।
उसके मंत्री कुशल थे। मंत्री के युवापुत्र का नाम था शीलसनाह वह यथानाम तथा गुण सम्पन्न था। उसे शील सदाचार अत्यन्त प्रिय था । उसके यौवन ने उसे अनूठे सौंदर्य से अलंकृत कर दिया था । वह मंत्रीजी की प्रेरणा से राजसभा में आने लगा । एक दिन रुप्पी राजा उसे एकटक निहारने लगी। वह उसके सौंदर्य से अभिभूत हो गयी । पुनः-पुनः शीलसनाह के मुख पर दृष्टि जाने लगी । मन में विकार उत्पन्न होने लगा। मंत्री -पुत्र यह बात ताड़ गया। वह सोचने लगा'यह राजा है । युवावय है । सत्ता सम्पन्न है । इसका मेरे प्रति मोह उत्पन्न हो गया है । यह सर्व-तन्त्र - स्वतंत्र स्त्री राजा है ! यह क्या अनर्थ कर गुजरेगी - कुछ कहा नहीं जा सकता । मेरे शील भंग का क्षण आया ही समझो। मेरे साथ मेरे कुटुम्ब पर भी संकट आ सकता है .....' यह सोचते हुए शीलसनाह ने एक निर्णय कर लिया । सभा समाप्त होते ही वह घर न जाकर विदेश की ओर रवाना हो गया ।
शीलसनाह अन्य राजा की सेवा करने लगा । वहाँ कुछ निमित्त को पाकर उसके हृदय में वैराग्य तीव्र रूप से प्रकट हो गया और वह दीक्षित हो गया । शीलसनाह मुनि गुरुचरणों में सानन्द रत्नत्रय की आराधना करने लगे। वे गुणसम्पन्न मुनि बन गये । गुरु उन्हें आचार्य -