Book Title: Mitti Me Savva bhue su
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 265
________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २५३ अधिक जिज्ञासा देख कर निमाईने टीका के कुछ पन्ने पढ़ कर सुना दिये । रघुनाथ पण्डित सुनते-सुनते रो पडे । दुःख का कारण पूछने पर बोले : "आपकी टीका इतनी अच्छी है कि उसके सामने मेरी दीघिति को कोई पूछेगा तक नहीं, इस प्रकार मेरा सारा परिश्रम, जिसका मुझे गर्व था, आज तुच्छ और व्यर्थ हो गया है। यही मेरे दु:ख का कारण है।" ' यह सुनते ही करुणासागर निमाई पण्डितने मित्र का दु:ख मिटाने के लिए एक-एक करके उस बह मूल्य टीका के पन्ने गंगाजी की धारामें बहा दिये आगे चलकर यही निमाई पण्डित "चैतन्य महाप्रभु"के नाम से विख्यात हुए । मित्रता के लिए त्याग का इससे बढ़कर उदाहरण भला और क्या मिलेगा ? अकबर और बीरबल में भी घनिष्ट मित्रता थी। एक दिन बादशाह की ओर से लड़ते हए बीरबल वीरगति को प्राप्त हुए। इस घटना से अकबर के हृदय को गहरा आघात लगा। बीरबल के इस दु:खद वियोग में अकबर के मूह से एकं सोरठा प्रकट हुआ : दीन जानि सब दोन एक न दीनो दुसह दुख । सो तुम हमको दीन कछु न राख्यो बीरबल । ___ इसका आशय यह था की तुमने गरीब जान कर लोगों को सब कुछ दे डाला केवल दुस्सह दुःख किसीको नहीं दिया था, सदा के लिए बिछुड़ कर वही दुःख मुझे दे डाला । हे बोरबल ! अपने पास तो तुमने कुछ भी नहीं रक्खा। ___महाराज वीरधवल भी मित्रवत् प्रजा का पालन करते थे। जब वे परलोकवासी हुए तब उनके महामन्त्री वस्तुपाल ने शोकोद्गार इस प्रकार प्रकट किये थे: For Private And Personal Use Only

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