Book Title: Marwad Ka Itihas Part 01
Author(s): Vishweshwarnath Reu
Publisher: Archeaological Department Jodhpur

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Page 468
________________ महाराजा रामसिंहजी हो गया । यह देख किलेवालों ने कुछ देर तक तो गोलाबारी कर इनका सामना किया, परन्तु अन्त में वि० सं० १८०८ की सावन बदी २ ( ई० सन् १७५१ की २१ जून ) को किले पर भी राजाधिराज का अधिकार हो गया। जब इस घटना की सूचना महाराजा रामसिंहजी को मिली, तब यह शीघ्र ही जोधपुर की तरफ़ चले । परन्तु राजाधिराज ने नगर के द्वार बंद करवाकर उसकी रक्षा का पूरा-पूरा प्रबंध कर लिया था । इससे नगर को कुछ दिन तक घेर रखने पर भी रामसिंहजी को सफलता न मिली । यह देख यह सिंघिया से सहायता प्राप्त करने के लिये जयपुर की तरफ़ चले गए । वि० सं० १८०६ ( ई० सन् १७५२ ) में सिंघिया की सहायता से रामसिंहजी ने एक बार फिर जोधपुर पर चढ़ाई की । इससे कुछ दिन के लिये अजमेर और फलोदी पर इन ( रामसिंहजी ) का अधिकार हो गया । परन्तु शीघ्र ही इन्हें उक्त स्थानों को छोड़कर रामसर होते हुए मंदसोर की तरफ़ जाना पड़ा । अन्त में बहुत कुछ चेष्टा करने के बाद बखतसिंहजी को साँभर का परगना इन्हें सौंप देना पड़ा । वि० सं० १८११ ( ई० सन् १८५४ ) में विजयसिंहजी ( बखतसिंहजी के पुत्र) के समय, मरईंटों (जय प्रापा सिंधिया) की सहायता से, इन्होंने १. नगर में प्रवेश करने पर राजाधिराज ने अपना निवास तलहटी के महलों में किया था । 'तवारीख़ राज श्री बीकानेर' में लिखा है कि वि० सं० १८०८ की आषाढ़ सुदी ६ ( ई० सन् १७५१ की २१ जून) को चार पहर तक जोधपुर - नगर लूटा गया । ( १० १७८ ) । परंतु ज्ञात होता है कि इसमें 'बदी' के स्थान में 'सुदी' और तिथि 'दशमी' के स्थान में 'नवमी' भूल से लिखी गई है । २. ' तवारीख राज श्री बीकानेर' में लिखा है कि उस समय जोधपुर का किला भाटी राजपूतों की देख-रेख में था ( पृ० १७८ ) । मारवाड़ की ख्यातों में किलेदार का नाम भाटी सुजानसिंह लिखा है । यह लवेरे का ठाकुर था । इस विषय का यह दोहा प्रसिद्ध है: " थारो नाम सुजाण थो, अबके हुआ अजाण । आश्रम चौथे आवियो, औ चूको अवसाण ।” बख़तसिंहजी को किला सौंपने में सांचोर का चौहान मोहकमसिंह भी शरीक था । इसलिये बख़तसिंहजी, इन दोनों से, अपने स्वामी महाराजा रामसिंहजी के साथ विश्वासघात करने के कारण, नाराज़ हो गए थे । ३. ग्रांट डफ की 'हिस्ट्री ऑफ मरहटाज़' में इस घटना का समय ई• सन् १७५६ ( वि० सं० १८१६ ) लिखा है ( भाग १, पृ० ५१३ ) | यह भूल प्रतीत होती है । वि० सं० १८११ की पौष वदी १० का, रामसिंहजी का एक ख़ास रुक्का मिला है। यह ताउसर ( नागोर के निकट ) से लिखा गया था । संभव है, उस समय मरहटों के साथ होने से यह उधर भी गए हों । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ३६५ www.umaragyanbhandar.com

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