Book Title: Manivai Chariyam
Author(s): Jinyashashreeji
Publisher: Omkarsuri Gyanmandir

View full book text
Previous | Next

Page 107
________________ ८८ . मणिपति चरित्रे मुक्का य तेण कट्ठा ताण लवो कुंचजीवगीवाए। लग्गो ते वमइ जवे सुवन्नयारो तओ भीओ ॥ ६६ ॥ नायं च इमं सव्वं लोगेणं सेणिओ तओ रुट्ठो । पेसेइ निययपुरिसे सुवनयारस्स गहणट्ठा ।। ६७ ॥ सो ढकिऊण बारं लुंचइ केसे य गिण्हइ वेसं। . सकुडुबो तो नीओ रायाणं धम्मलाभेइ ॥ ६८ ॥ सो पभणइ 'सुगहीयं कायव्वं साहुलिंगमन्नत्थ । जइ मुच्चसि सकुडुबो तो मह पासा न ते मोक्खो' ॥ ६९ ॥ इय मेयज्जमुणिदं खंतिदयानाणरयणरायल्लं । भत्तिभरनिब्भरंगो चउदसपुव्वी थुणइ एवं ।। ७० ॥ मुक्ता च तेन काष्टानि तेषां लवः क्रौञ्चजीवग्रीवायाम् । लग्नस्तान् वमति यवान् सुवर्णकारस्ततो भीतः ॥ ६६ ॥ ज्ञातञ्चेमं सर्वं लोकेन श्रेणिकस्ततो रुष्टः । प्रेषयति निजकपुरुषान् सुवर्णकारस्य ग्रहणार्थम् ।। ६७ ॥ स छादयित्वा द्वारं लुञ्चति केशाञ्च गृह्णाति वेषम् । सकुटुम्बस्ततो नीतः राज्ञां धर्मलाभयति ॥ ६८ ॥ . स प्रभणति सुगृहीतं कर्तव्यं साधुलिंगमन्यत्र । यदि मुञ्चसि सकुटुम्बस्ततो मम पाशान्न ते मोक्षः ॥ ६९ ॥ इति मेतार्यमुनिन्द्रं क्षमा दया-ज्ञानरत्नराजमानम् । भक्तिभरनिर्भराङ्गः चतुर्दशपूर्वी स्तौत्येवम् ॥ ७० ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154