Book Title: Mahavira Vardhaman
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Vishvavani Karyalaya Ilahabad

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Page 32
________________ संयम, तप और त्याग का महत्त्व दिन से वह अपने दुष्ट स्वभाव के लिये प्रसिद्ध हो गई। इस दृष्टांत द्वारा बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को उपदेश दिया कि हे भिक्षुप्रो ! जब तक अपने विरुद्ध कोई बात नहीं सुनी जाती तब तक सब शांत रहते है, परन्तु अपने विरुद्ध वचन सुनने पर भी शांत रहना सच्ची शांति है । तप और त्याग की भावना को महावीर ने अपने जीवन में प्रत्यक्ष ढालकर बताया था। उन की तपश्चर्या-देहदमन और कष्टसहिष्णुता, वास्तव में अद्भुत थी जिसे देखकर बड़े बड़े तपस्वियों के आसन डोल जाते थे। तिस पर भी उन का तप कुछ लौकिक कीर्ति अथवा सुख-प्राप्ति के लिये नही था, बल्कि उस मे स्व और पर-कल्याण की भावना अन्तहित थी। केवल शुष्क देहदमन भी महावीर के तप का उद्देश्य नही था, उस में शारीरिक और मानसिक कठोर साधना द्वारा कायिक सुखशीलता तथा अधैर्यरूप मानसिक हिंसा के त्याग का रहस्य सन्निहित था। इसी पर महावीर ने भार दिया था। भगवती सूत्र में तप के बाह्य और आभ्यन्तर भेद बताते हुए कहा है कि प्रमाद आदि को नाश करने के लिये तथा आवश्यक आत्मबल प्राप्त करने के लिये शरीर, इन्द्रिय और मन को वश मे रखने का नाम तप है।५ समंतभद्र ने लिखा है कि आध्यात्मिक तप का पोषण करने के लिये ही परम दुश्चर बाह्य तप किया जाता है। इस से स्पष्ट है कि महावीर के धर्म मे बाह्य तप गौण था और अंतरंग शद्धि ही एकमात्र उस का उद्देश्य था। अचेलकत्व के उपदेश का यही अर्थ था कि नग्न रहकर, अपनी आवश्यताएँ अधिक से अधिक घटाकर आत्मशुद्धि प्राप्त करनी चाहिये । सूत्रकृतांग में कहा है कि भले ही कोई नग्न अवस्था में विचरे, या एक एक महीने तक उपवास करे, परन्तु यदि उस के मन में ककचूपम सुत्त २५.७ बृहत्स्वयंभू स्तोत्र, कुंथुजिन स्तोत्र ८३

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