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से प्रारम्भ होती है औरइ सका समृद्धि-युग नवीं से तेर हवीं चौदहवीं शती तक है। आठवीं नवीं शती में प्राप्त अपभ्रंश - साहित्य में स्वयम्भू कवि का ग्रादिम स्थान है । इनके अतिरिक्त, नवीं से तेरहवीं-चौदहवीं शती तक की अवधि में पुष्पदन्त, धवल, धनपाल, नयनंदी, कनकामर, धाहिल्ल, रइधू आदि अनेक पांय प्रतिभाशाली कवियों ने अपने वाग्वैभव का विस्तार किया है । इनमें काव्यात्मक कथ्य और शिल्प की दृष्टि से पुष्पदन्त का नाम धुरिकीर्त - नीय है ।
अपभ्रंश-साहित्य में काव्यसृष्टि की दृष्टि से स्वयम्भू और पुष्पदन्त का अतिशय महत्त्वपूर्ण स्थान है, तो सूर और तुलसी हिन्दी साहित्य के गौरवालंकार हैं । साथ ही शोधचाक्षुष प्रध्ययन से यह स्पष्ट है कि हिन्दी के महाकवि तुलसी ने अपने 'रामचरितमानस' के रचना-शिल्प में अपभ्रंश के महाकवि स्वयम्भू की रामायण 'पउमचरिउ' के प्रभाव को आत्मसात् किया है, तो महाकवि सूरदास ने पुष्पदन्त की अपभ्रंश कृति 'महापुराण' के भावशिल्प से अपने काव्यतत्त्व को विशिष्टता प्रदान की है ।
महाकवि पुष्पदन्त और महाकवि सूरदास का समय, दार्शनिक मान्यताएं, भाषा-संस्कार, वर्णनशैली और यहां तक कि काव्य-वस्तु में भी स्पष्ट पार्थक्य दृष्टिगत होता है, फिर भी दोनो के कृष्णलीला चित्ररण में मूलभूत समानताएं हैं। पुष्पदन्त अपभ्रंश के कवि हैं और सूरदास ने ब्रजभाषा में अपने काव्यों का निबन्धन किया है। पुष्पदन्त का समय दसवीं शती का मध्यभाग है, जबकि देशी राज्यों के बीच सत्ता हस्तगत करने के लिए पारस्परिक संघर्ष चल रहा था और सूरदास ने सोलहवीं शती में, अर्थात् मुगलों के उत्कर्ष काल में अपनी काव्य-भारती का विस्तार किया था। पुष्पदन्त ने अपने 'महापुराण' में कृष्ण कथा को बीजरूप
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में उपन्यस्त किया है, तो सूर ने अपने 'सूरसागर' में कृष्ण की लीलामयी कथा को विराट और व्यापक फलक पर उतारा है। हालाँकि, 'सूरसागर' श्रीमद्भागवत गीता पर आधृत है, किन्तु सूर ने दसवें स्कन्ध में कृष्ण की ललित लीलाओं को इतना अधिक वैविध्य और विस्तार प्रदान किया है कि वह एक स्वतन्त्र काव्य सृष्टि बन गई है ।
'सूरसागर' की कृष्णलीलाओं का पारम्परिक प्रेरणा-स्रोत 'विद्यापति पदावली' और 'गीतगोविंद' है, ऐसी भी सामान्य धारणा है । किन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सूरदास के पहले भी कृष्णलीला गान की लिखित या मौखिक पूर्व-परम्परा के रहने की ओर संकेत किया है। इसी तथ्य संकेत के सन्दर्भ में 'महापुराण' में चित्रित कृष्णलीलाओं को देखकर यह बात स्थिर हो जाती है कि ईसा की दसवीं शती में कृष्ण की वाल्य और यौवन की लीलाएं अपने नव्यतम परिवेश में सातिशय लोकप्रिय होने के साथ ही भाषा - काव्य में भी प्रतिष्ठित हो चुकी थी । पुष्पदन्त ने भी सूरदास की तरह ही कृष्ण की सामान्य बाल लीलाओं साथ उनकी मिथकीय, अर्थात् देवी या पौराणिक लीलाओं का भी वर्णन उपस्थित किया है ।
के द्वारा पुष्पदन्त से सीधे प्रेरणा ग्रहण सूर करने की बात विवादास्पद भले ही हो, किन्तु दोनों के कृष्णलीला - वर्णन का न्यूनाधिक मूलभूत समानताओं से इनकार नहीं किया जा सकता । वर्णन में अन्तर केवल सम्प्रदाय-भेद के कारण ही आया है । 'महापुराण' जैन परम्परा का परिपोषक है, तो 'सूरसागर' वैदिक परम्परा के पर्यावरण में प्रस्तुत हुआ है। सच पूछिए तो जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराओं की कथाओं की प्रात्माएं एक हैं, विविधता है. तो केवल वचोभंगी का। ज्ञातव्य है कि जैन कथाएं जहां प्रायः लौकिक होती हैं वहां वैदिक या पौराणिक कथाओं में अलौकिकता की स्थापना की परम्परा दृष्टिगोचर होती है ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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