Book Title: Mahavir Vani
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 368
________________ ३६. श्रमण - शिक्षा २. वसुधम्मिवि विहरता पीडं ण करेंति कस्सइ कयाई । जीवेसु दयावण्णा माया जह पुत्तभंडेसु ।। पुत्रों के प्रति माता की तरह सब जीवों के प्रति दया को प्राप्त विहार करते हुए भी किसी जीव को पीड़ित नहीं करते । ३. तो परिहरति धीरा सावज्जं जेत्तियं किंचिं । (मू० ७६६) जीव और अजीव को जानकर धीर पुरुष यत्किंचित् भी सावद्य होता है, उसका परिहार करता है। ४. णिक्खित्तसत्थदंडा समणा सम सव्वपाणभूदेसु । अप्पट्ठे चिंतंता हवंति अव्वावडा साहू || ५. उवसंतादीणमणा उवेक्खसीला हवंति मज्झत्था । णिहुदा अलोलमसठा अविंभिया कामभोगेसु । । (मू० ८०३) हिंसा के कारणभूत शस्त्र, दण्ड आदि सब जिन्होंने छोड़ दिए हैं, जो सर्व प्राणियों और भूतों के प्रति सम है, सावद्य व्यापार-रहित हैं, वे श्रमण आत्मार्थ का ही चिंतन करते रहते हैं । ३४३ ६. जिणवयणमणुगणेंता संसारमहाभयंपि चिंतंता । गब्भवसदीसु भीदा भीदा पुण जम्ममरणेसु ।। ( मू० ७६८) साधु पृथ्वी पर (मू० ८०४) साधु उपशांत, दीनचित्तरहित, उपेक्षाशील, समदर्शी, हाथ पाँव को संयम में रखने वाले, अलोलुप, अशठ, मायारहित और काम-भोग में अनुत्सुक होते हैं । ७. दिट्ठपरमट्ठसारा विण्णाणवियक्खणाय बुद्धीए । णाणकयदीवियाए अगब्भवसदी विमग्गति । । (मू० ८०५) मुनि जिन वचनों में अत्यन्त प्रीति रखनेवाले, संसार के महाभय का चिंतन करनेवाले, गर्भ में रहने से भयभीत और जन्म-मरण से भी भयभीत होते हैं। ८. भावेंति भावणरदा वइरग्गं वीदरागयाणं च । णाणेणं दंसणेण य् चरित्तजोएण विरिएण ।। (मू० ८०७) जिन्होंने संसार का असली स्वरूप देख लिया है, ऐसे साधु भेदज्ञान में कुशल बुद्धि द्वारा ज्ञानरूपी दीप के सहारे गर्भरहित निवास की खोज करते रहते हैं। (मू० ८०८) भावना में लीन साधु ज्ञान, दर्शन, चारित्र, ध्यान और वीर्य से युक्त होकर वीतराग पुरुषों के वैराग्य का चिंतन करते हैं ।

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