Book Title: Mahavir Jivan Prabha
Author(s): Anandsagar
Publisher: Anandsagar Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 176
________________ * परिशिष्ट * [१६३ धृ-धारणे धातु से धर्म शन्द बनता है- धारयति इतिधर्म:- कान् ? जीवान् , कथंभूतान् ? पततान् , कस्मिन् स्थाने ? दुर्गतौ-दुर्गती पततान् जीवान् धारयति इति 'धर्मः' यह व्याकरण के नियम से व्युत्पत्यर्थ होगया. ___ सदाचार और सद् विचार के अतिरिक्त संसार में कोई धर्म नहीं है, बाकी सब ढकोसले हैं . "ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्षः " यह सिद्धान्त इसको प्रमाणित करता है। इसके अनुयायी क्रमशः 'विश्व-प्रेम' ( Universal love) सम्पादन कर सकते हैं. धर्म व्यक्तिगत ( Personal) होना चाहिए, समाज पर उसका जबरदस्ती बोझा लाद दिया गया है और क्रियावाद का भारी दवाव ( Pressing ) किया गया है ; इससे परस्पर मनोमालिन्य बढ़कर झगड़ा पैदा होगया है , जो अब किसी कदर समेटा नहीं जाता, समाजों का आपुस में टकराना मनुष्यत्व-इनशानियत को खोना है, एकशा मान्यता वालों का एक दल बन जाय, उसमें कोई आपत्ति नहीं है, पर उनके सन्तानों पर, सम्बंधियों पर और ज्ञाति पर दबाव डालकर अपना धर्म पालन कराना एक तरह का उन पर आक्रमण (Attack ) है, उसका परिणाम बहुत बुरा होता है ; हर एक को यह कुदरती आजादी ( Natural-freedom) है कि अपने रुचि के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 174 175 176 177 178 179 180