Book Title: Mahavir Jivan Me
Author(s): Manakchand Katariya
Publisher: Veer N G P Samiti

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Page 117
________________ मन्दिर आम-साधना की कर्मशाला बने मैं आपको किसी अश्रद्धा के क्षेत्र में नही उतार रहा–मन्दिर हमारी भावनाओ के न्यूक्लियस (मध्य बिन्दु) हैं। प्रतिमाएँ हमारे मान्य लक्ष्यों की प्रतीक हैं। मनुष्य अपनी आत्म-साधना के जिस शिखर तक ऊचा उठना चाहता है, उस आरोहण में प्रतिमा से उसे प्रेरणा मिलती है, सकल्पवीरता मिलती है। प्रश्न यह है कि यह उपलब्धि हमारे साथ लग रही है क्या? या हम जाने-अनजाने परिग्रह के एक नये ससार मे गोता लगा गये हैं ? वस्तुओ का, धन और सत्ता का, यश और सम्मान का, वैभव का परिग्रह तो हम जान-बूझ कर जुटा रहे हैं. यह समझते हुए भी कि यह बोझ हमे भीतर से तोड देगा, फिर भी हम एक बार यह बोझ उठा ही लेना चाहते है। जिस तरह हाथ लग जाए, पा लेना चाहते हैं। यह परिग्रह तो नेसेसरी इविल-अनिवार्य बुराई- के रूप मे हमसे चिपक गया है। लेकिन साथ ही साथ मैं बहुत नम्रता से कहना चाहता हूँ कि हमारे तीर्थ, मन्दिर, प्रतिमाएँ और मूर्तिया भी इसी तराज़ पर चढ गई हैं। परिग्रह के सैलाब ने उन्हे भी अपने प्रवाह मे घसीट लिया है। यह एक ऐसा सूक्ष्म परिग्रह है जो दिखाई नही देता, लेकिन हममे गहरा पैठ गया है। कभी हमारा विवेक जागे तो किसी दिन सभव है हम अपना सग्रहीत धन-वैभव और माया छोड सकेगे, उससे अपना पल्ला छुडाकर अपने 'स्व' को पहचान सकेगे। लेकिन मूर्तियो से मुंह मोडने की हिम्मत हम शायद नहीं कर पाये। यह भी हमसे कहते नहीं बनेगा कि बस और नये-नये महावीर हमे नही चाहिए, जितने प्रतिष्ठित कर लिये बहुत हैं, जितने मदिर रच लिये पर्याप्त है। पर मैं इस साहस को पाने की आराधना जरूर करना चाहता हूँ--आपका और मेरा मन इस बिन्दु पर अवश्य लाना चाहता हूँ कि प्रतिमाओ को जो शाति, जो समाधान, जो वीतरागता, जो समता, जोधैर्य और जो सकल्पशूरता हमने सौंपी है तथा मदिरो को जो पवित्रता प्रदान की है, वह हमारे हाथ लगे। जिस तरह चिकित्सालयो में हम अपने जीवन में? १०५

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