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लेश्या-कोश तए णं तस्स तेलिपुत्तस्स अणगारस्स सुभेणं परिणामेणं पसत्थेणं अज्झवसाणेणं लेम्साहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खसोवसमेणं कम्मरविकिरणकरं अपुन्वकरणं पविट्ठस्स केवलवरणाणदसणे समुप्पण्णे।
–णाया० अ १४ । सू ८३
अर्थात् तेतलिपुत्र को गृहस्थावस्था में शुभ परिणाम से जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ। इसके बाद उन्होंने संयम ग्रहण किया, गृहस्थ से अणगार बने, विचित्र प्रकार की तपस्या की। स्वयं ही दीक्षित हुए तथा स्वयं ही चतुर्दश पूर्वो की विद्या प्राप्त की।
तेतलिपुर नगर के प्रमदवन उद्यान में तेतलिपुत्र अणगार को शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय, लेश्या की विशुद्धि से, तदावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने से कर्म रूपी रज को नष्ट कर अपूर्वकरण में प्रविष्ट हुए तथा केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुआ।
१६.-संज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय को शुभ परिणाम आदि से जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न होता है--उववाई सूत्र में कहा है. से जे इमे सण्णि-पंचिंदिय-तिरिक्खजोणिया पज्जत्तया भवंति, तं जहा-जलयरा, थलयरा, खहयरा।
तेसि णं अत्थेगइयाणं सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणाणं सण्णीपुत्वजाईसरणे समुप्पज्जई ।
-ओव० सू १५६ अर्थात् कतिपय मंज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय को शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और विशुद्ध लेश्या से, तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम होने से, ईहा-अपोहमार्गणा-गवेषणा करते हुए पूर्व भवों की स्मृति रूप जातिस्मरण रूप ज्ञान उत्पन्न होता है। आगमों में कहा-उस जाति स्मरण ज्ञान के उत्पन्न होने पर वे तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय ( जलचर-स्थलचर-नभचर ) स्वयं ही पाँच अणुव्रतों को स्वीकार करते हैं। बहुत से शोलवत, गुणव्रत विरमण, प्रत्याख्यान और पोषघोपास से आत्मा को भावित करते हुए, बहुत वर्षों की आयुष्य प्राप्त करते हैं । आयुष्य के नजदीक आने
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