Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur

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Page 306
________________ भक्तामर - स्तोत्र -श्रीचंद सुराणा "सरस" "भक्तामर-स्तोत्र" भक्ति-साहित्य का अनुपम एवं कान्तिमान रत्न है। शांत-रस-लीन प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की भक्ति की अजस्त्र रस-धारा जिस प्रवाह और वेग के साथ इस काव्य में प्रवाहित है, वह अन्त:करण को रस-आप्लावित कर देने वाली है। भक्ति का प्रशम रस-पूर्ण उद्रेक सचमुच में भक्त को "अमर" बनाने में समर्थ है। यह एक कालजयी स्तोत्र है। इसकी मधुर-ललित शब्दावली में न केवल उत्कृट भक्ति रस भरा है, अपितु जैन-दर्शन का आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक वैभव भी हर छन्द में मुखरित होता है। इसकी लय में एक अद्भुत नाद है, जिसके द्वारा पाठ करते समय अंतर हृदय का तार सीधा आराध्यदेव के साथ जुड़ जाता है। स्तोत्र के प्रारम्भ में स्तुति कर्ता भक्त प्रभु को "त" (उन) के रूप में स्वयं से दूर-स्थित अनुभव करता है, किन्तु ज्यों-ज्यों भक्ति की गहराई में डूबता है, त्यों-त्यों भक्त-भगवान के बीच अधिक समीपता एवं गहरी घनिष्ठता बढ़ती जाती है, जो "त्व" "तव' आदि शब्दों में व्यक्त होने लगती है। लगता है, असंख्य योजन की दूरी क्षण-भर में ही हृदयस्थ समीपता में बदल गई और प्रभु आदिदेव भक्त के हृदय मंदिर में विराजमान हो गये हैं। इस प्रकार अत्यंत भक्ति-प्रवण क्षणों में रचा गया यह आत्मोन्मुखी स्तोत्र है। स्तोत्र-साहित्य का मुकुट मणि है। शताब्दियों के बीत जाने के बाद भी इस स्तोत्र की महिमा और प्रभावशीलता कम नहीं हुई, बल्कि उत्तरोत्तर वृद्धिगत होती रही है। आज भी लाखों भक्त बड़ी श्रद्धा के साथ इसका नियमित पाठ करते हैं, और अभीष्ट प्राप्ति की सुखद अनुभूति भी करते हैं। "भक्तामर-स्तोत्र" के रचयिता आचार्य श्री मानतुंग बड़े ही प्रतिभाशाली विद्वान, जिनशासन प्रभावक और अत्यंत चमत्कारी संत थे। "भक्तामर-स्तोत्र" का एक-एक अक्षर उनकी अनंत आस्था-युक्त सचेतन भगवद् भक्ति को उजागर करता है। कहा जाता है, कि अवन्ती नगरी के राजा वृद्धभोज ने चमत्कार देखने की इच्छा से आचार्यश्री को हथकड़ी-बेड़ी डालकर कारागार में बंद कर दिया था, और बाहर मजबूत ताले लगाकर कड़ा पहरा बैठा दिया। तीन दिन आचार्यश्री ध्यानस्थ रहे, चौथे दिन प्रात:काल भगवान आदिनाथ की स्तुति के रूप में इस स्तोत्र का निर्माण किया। आपने ज्यों ही "आपाद कंठ-मुरू-शृंखल वेष्टितांगा" छियालीसवां श्लोक उच्चारित किया, त्यों ही हथकड़ी-बेड़ी और ताले आदि के बंधन टूट-टूटकर गिर पड़े। आचार्यश्री बंधन-मुक्त होकर कारागार से बाहर निकल आये। राजा के मन पर इस घटना का अद्भुत प्रभाव पड़ा, वह आचार्यश्री का तथा भगवान आदिनाथ का परम भक्त बन गया। भक्ति में आश्चर्यकारी शक्ति हैं। श्रद्धा में अनन्त बल होता है। शुद्ध और पवित्र हृदय से प्रभु के चरणों में समर्पित होकर यदि कोई उन्हें पुकारता है, तो उसकी पुकार कभी खाली नहीं जाती। उसके जीवन में भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों का संचार होता है। वैभव, मन जब लागणी के घावत से घवाता है तब कठोर बन ही नहीं सकता। ३५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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