Book Title: Lakshya Banaye Safalta Paye
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 56
________________ साथ, एक ही छत के नीचे बैठकर खाना खाते हैं। इससे बढ़कर परिवार के लिए और पुण्य क्या हो सकता है? जिस परिवार के चार बेटे अलग-अलग घर बसा लें, तो मां-बाप के लिए इससे बढ़कर त्रासदी और क्या हो सकती है? यह धर्म-संघ का पुण्य है कि जहां वह एकछत्र, एक मंच पर खड़ा होता है। यह धर्म-संघ के लिए पापोदय है कि जहां संघ एक तीर्थंकर, एक ईश्वर, एक धर्म का अनुयायी होने के बावजूद अपने आपको खेमों में बांट लेता है। नतीजतन एक धर्म का वही हश्र होता है, जैसे किसी मानचित्र के चार टुकड़े कर दिए जाएं और उन्हें चारों दिशाओं में फेंक दिया जाए। तोड़ें नहीं, जोड़ें रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय। टूटे से फिर ना जुरे, जुरे गांठ पड़ जाय।। प्रेम-भाव को तो हम और प्रगाढ़ करें। तोड़ें नहीं, जोड़ें। कभी-कभी लगता है कि खत्म हो गया है वह प्रेम, जिसको लेकर धर्मों का जन्म हुआ। इंसानियत, एकता, भाईचारा, विश्व-मैत्री का संदेश केवल प्रार्थनाओं और बैनरों पर टंगने और लिखने भर तक के लिए रह गया है, आम जीवन में इसका कोई उपयोग नहीं रहा है। धर्म उसका होता है, जो इसको जीता है, प्रेम करता है। ईसाई वह व्यक्ति नहीं होता, जो गिरजाघर में जाकर ईसा मसीह की प्रार्थना करता है, वरन वह है, जो ईसा के प्रेम को अपने जीवन में जीता है। वह व्यक्ति हिन्दू नहीं होता, जो राम की पूजा करता है, वरन वह व्यक्ति हिन्दू है, जो राम की मर्यादाओं को अपने जीवन में उतार लेता है। महापुरुषों का स्मरण, पूजा, प्रार्थना खूब हो गई। मात्र इससे व्यक्ति का कल्याण नहीं होने वाला है। उनके गुणों को अपने जीवन में जीने से कुछ काम बनेगा। माना कि हम आसमान के चांद-तारों को छू नहीं सकते, उन्हें पा नहीं सकते, मगर उनकी रोशनी में अपने रास्तों की तलाश तो कर ही सकते हैं। माना हम राम, कृष्ण, महावीर नहीं हो सकते, मगर उन जैसा होने का प्रयास तो कर ही सकते हैं, उनकी प्रेरणाओं को हम अपने जीवन का अंग तो बना ही सकते हैं। 55 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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