Book Title: Kumtahivish Janguli Mantra
Author(s): 
Publisher: Pravinchandra Amrutlal Shah

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Page 28
________________ विषयुक्तिजाङ्गलीमन्त्रः ॥ कुमताहि-है यदा चायमप्रमाणीकृतस्तदा तज्जल्पाकनं क्व गतमभूद्यदिदानीप्रादुर्भूतमिति सर्वज्ञशतकाऽप्रमाणकरणरीतिरपि लिख्यते॥१३॥ यथा--श्रीहीरविजयसूरिगुरुभ्यो नमः। संवत् १६७१ वर्षे वैशाखसित-तृतीयाया श्रीअहम्मदाबादनगरे श्रीविजयसेनसूरिमिर्लिख्यते-- 'समस्तसाधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकासमुदाययोग्य श्री ५ श्रीहीरविजयसूरि जे बार १२ बोल प्रसाद करया छइ ते तिमज प्रमाण करवा। ते आशरी नवो अर्थ करीनइ कोणि विपरीत प्ररूपणा न करवी १। तथा सर्वज्ञशतक ग्रन्थ सूत्र बृत्तिमांहि श्रीहीरविजयसूरि जे पांच बोलना मिच्छा मि दुक्कडा देवराव्या हता ते आश्री विपरीत प्ररूपणा सिद्धांतनई अणमीलती लिखी छह ते मार्टि सर्वशशतकग्रन्थ अप्रमाण छई। ए ग्रन्थ कुणइ वांचवो नहीं। तथा कुणिं लिखाववो नहीं। जे वांचइ तथा लिखावइ तेहनई विद्यमान गच्छनायकई गच्छवाहिरनु ठबको देवो। तथा श्रावक वांचइ तु श्रावक संघ बाहिरनु ठबको देवु २। तथा व्याख्यान विधि शतक सूत्रवृत्ति औष्ट्रिक मतोत्सूत्र दीपिका तद्वालावबोध प्रमुख ग्रन्थमांहि पणि केतलाइक शास्त्र विरुद्ध बोल छ। ते माटि ते ग्रन्थ गच्छनायकनी आशा पूर्वक शोध्या विना कोणई वांचवा नहीं। ए आशासहू कोणि मानवी, जे न मानई तेहनई गच्छनायकई रूडी मेलि शीष देवी ॥ REGAOISSES ॥१३॥

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