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सप्तमो लम्बः । अन्वयार्थः-- (अज्ञानम् ) अज्ञान स्वरूप (अशुचेः बीज) अपवित्र मल मूत्रादिकका कारण (व्यूह) तर्कना रहित विचार शून्य (देहकम् ) शरीरको (ज्ञात्वा अपि) जानकरके भी (अत्र सस्टहः) इसमें इच्छा सहित (आत्मा) आत्मा (आत्मनः कर्माधीनत्वं वक्ति) अपने कर्माधीन पनेको कथन करता है ॥ ३९ ॥ मदीयं मांसलं मांसममीमांसेयमङ्गाना । पश्यन्ती पारवश्यान्धा ततो याम्यात्मनेऽथवा ॥४०॥ ___ अन्वयार्थः- (अमीमांसा) विचारशून्य (इयं अङ्गना) यह स्त्री (मासलं मदीयं मांस) बलवान् पुष्ट मेरे मांस (शरीर) को (पश्यन्ती) देखकर (पारवश्यान्धा) कामकी पराधीनतासे अध (जाता) होगई । (ततः) इसलिये (अथवा) अथवा (आत्मने) अपनी आत्माके हितके लिये (अयामि) मैं जाता हूं ॥ ४० ॥ अङ्गारमहशी नारी नवनीतसमा नराः । तत्तत्मानिध्यमात्रेण द्रवत्पुंसां हि मानसम् ।। ४१॥ ___अन्वयार्थः----( नारी ) स्त्री ( अङ्गार सदृशी ) जलते हुए कोयले के समान है और ( नराः ) मनुष्य ( नवनीत समाः ) नैनृ अर्थात् तुरत निकले हुए घीके समान होते हैं (तत्तस्मात् इसलिये (हि निश्चयसे (तत् सांनिध्यमात्रेण) स्त्रियों की समीपता मात्रसे ही (पुंसां पुरुषोंका (मानसम् ) हृदय (वेत) पिघल जाता है।।४ ११ संशापासहासादित पापभीरूणा। बालथा वृद्धया मात्रा दुहित्रा वा व्रतस्थया ॥४२॥