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तृतीय उल्लासः
१६७ आदिग्रहणाच्चेष्टादेः । तत्र चेष्टाया यथा
द्वारोपान्तनिरन्तरे मयि तया सौन्दर्यसारश्रिया,
प्रोल्लास्योरुयुगं परस्परसमासक्तं समासादितम् । मोति व्यज्यते । अत्रेति वसन्तरूपकालवंशिष्टयावगमादिति शेषः, अत्र लक्षणया प्रियपदस्याप्रियार्थकतया मन्दभागिनीपदस्य भाग्यवतीत्यर्थकतया लक्ष्यस्य तद्वयङ्ग्यस्य च बहुधा दत्तदुःखत्वस्य मरणप्रयुक्तक्लेशोपशमस्य च व्यञ्जकत्वं बोध्यम् । द्वारोपान्तेति । सौन्दर्यस्य सारभूता श्रीर्यस्याः सा तथा तया सौन्दर्यसारस्योत्कृष्टसौन्दर्यस्य श्रीः शोभा तद्र पयेति वा, अत्रेति चेष्टावैलक्षण्यावगमादिति शेषः । आकूतविशेषो भावविशेषः शृङ्गारसञ्चारिलज्जालक्षण इति कश्चित् । अनुराग इत्यन्ये । वस्तुतः परस्परसमासक्तत्वेनाऽऽलिङ्गनम्, आनीतमित्यनेन गूढागमनम्, अधिक्षिप्त इत्यादिना सूर्यास्तकालेऽवनतमुखं वा, वाचस्तत्र त्यनेन कोलाहलनिवृत्तावागमनं, सङ्कोचिते इत्यनेन पारितोषिकमालिङ्गनं व्यज्यत
"अत्राद्य .......... गतिमिति व्यज्यते" यह 'वसन्तरूपकालवैशिष्ट्यावगमात्' इसका शेष मानना चाहिए। इस तरह अर्थ होगा कि आज वसन्त के समय तुम यदि जाते हो तो मैं तो जीवित नहीं रहूंगी; तुम्हारी क्या गति होगी यह मैं नहीं जानती यह वसन्तरूप कालवैशिष्ट्य के ज्ञान से व्यक्त होता है।
यहां लक्षणा के द्वारा 'प्रियपद' अप्रिय अर्थ को प्रकट करता है और मन्दभागिनी पद 'भाग्यवती' अर्थ को, इसलिए यहाँ लक्ष्यार्थव्यंजकता भी है । और क्रमशः लक्ष्यार्थ के व्यंङ्गय-बहुधा दुःख देनेवाले और मरणप्रयुक्त क्लेश के शमन से पूर्वोक्त व्यङ्गय निकलता है। इसलिए यहाँ व्यङ्ग्यार्थव्यंजकता भी है।
१०-आदि पद से ग्राह्य चेष्टा के व्यंजकत्व का उदाहरण (कारिका में आये हुए आदि पद से चेष्टा आदि का ग्रहण करना चाहिए । उनमें चेष्टा के व्यंजकत्व का उदाहरण देते हैं)
द्वारोपान्तनिरन्तरे......... "दोलते । - ज्यों ही मैं दरवाजे के समीप पहुँचा कि उस परम सौन्दर्य-लक्ष्मी ने अपनी दोनों जंघाओं को फैलाकर एक दूसरे से चिपटा लिया, सिर से बहुत नीचे तक लम्बी घूघट निकाल ली, आँखें नीची कर ली, बोलना बन्द कर दिया और अपनी बाहें सिकोड़ लीं।
- "जिसकी श्री सौन्दर्य की सारभूत हो, उस नायिका ने” इस विग्रह के अनुसार 'सौन्दर्यसारश्रिया में बहुव्रीहि समास मानना चाहिए अथवा तत्पुरुष भी माना जा सकता है। तत्पुरुष समास के अनुसार इसका विग्रह होगा सौन्दर्य के सार अर्थात् उत्कृष्ट सौन्दर्य की जो शोभा, तत्स्वरूप उस रमणी ने "अत्र चेष्टया प्रच्छन्नकान्तविषय आकृतविशेषो व्यज्यते" यहाँ "चेष्टावलक्षणावगमात्' का शेष मानना चाहिए। इस तरह अर्थ होगा कि यहां चेष्टाविशेष के ज्ञान से प्रच्छन्न (गुप्तरूप में स्थित) कान्तविषयक अभिप्राय विशेष व्यङ्गय है। 'आकृतविशेष' का अर्थ है भावविशेष । उसका तात्पर्य यहाँ शृंगार के 'संचारीभाव' और 'लज्जा' है । यह किसी का मत है । कुछ अन्य लोग उसका तात्पर्य 'अनुराग-विशेष' मानते हैं । वस्तुनः (जंघाओं को) परस्पर सटाना (चिपटाना) इस अर्थ से 'आलिङ्गन' अर्थ अभिव्यक्त होता है, 'आनीतम्' से गूढागमन व्यङ्गय है। 'अधिक्षिप्ते' (अधः क्षिप्ते के स्थान में टीकाकार ने 'अधिक्षिप्ते' पाठ माना है।) इत्यादि से सूर्यास्तकाल में अवनतमुख काल के संकेत द्वारा 'उस सूर्यास्त काल का अर्थ अभिव्यक्त होता है ; जबकि कमल नतमुख हो जाते हैं । अथवा सूर्यास्त काल में मुंह नीचा करके आने का संकेत मिलता है, जिससे लोग मुंह नहीं देख सकेंगे और तब पहचान भी नहीं सकेंगे" यह व्यक्त होता है या अवनत मुख देखकर कोई किसी भावी सुख का अनुमान नहीं कर सकेंगे, इसका संकेत मिलता है । "वाचस्तत्र निवारितम् - बोलना बन्द कर दिया' इससे कोलाहल की निवृत्ति होने पर आना" यह प्रकट होता है। "संकोचिते