Book Title: Karmgranth 01 02 03
Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 35
________________ एसा पयडितिगूणा, वेयणियाहारजुअल-थीणतिगं; । मणुआउ पमत्तंता, अजोगि अणुदीरगो भयवं ॥ २४ ॥ भावार्थ : प्रमत्त गुणस्थानक के अंत में दो वेदनीय, आहारक द्विक, थीणद्धि त्रिक और मनुष्य आयुष्य इन आठ प्रकृतियों की उदीरणा का विच्छेद होता है । अयोगी भगवंत उदीरणा रहित होते हैं ॥२४॥ सत्ता कम्माण ठिई, बंधाईलद्ध-अत्तलाभाणं । संते अडयालसयं, जा उवसमु विजिणु बिअतइए ॥२५॥ ___भावार्थ : बंध आदि के द्वारा स्व स्वरूप को जिन्होंने प्राप्त किया है ऐसे कर्मों का आत्मा के साथ रहना, उसे सत्ता कहते हैं । उपशांत मोह गुणस्थानक तक सत्ता में 148 कर्मप्रकृतियाँ होती हैं। दूसरे-तीसरे गुणस्थानक में जिननाम की सत्ता नहीं होती है ॥२५॥ अप्पुव्वाइचउक्के, अणतिरिनिरयाउ विणु बियालसयं; । सम्माईचउसु सत्तग-खयंमि इगचत्तसयमहवा ॥ २६ ॥ भावार्थ : अपूर्वकरण आदि चार गुणस्थानकों में अनंतानुबंधी चतुष्क, तिर्यंचआयु व नरकआयु को छोड़कर 148 प्रकृतियाँ सत्ता में होती हैं, और अविरत सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानकों में दर्शनसप्तक का क्षय होने से 141 प्रकृतियाँ सत्ता में होती हैं ॥२६॥ ३४ कर्मग्रंथ

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