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कर्मप्रकृति
इनमें उदयवती प्रकृतियां चौंतीस हैं। जिनके दलिक अन्तिम समय में स्वोदय से वेदन किये जाते हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, आयुचतुष्क, दर्शनचतुष्क, साता-असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद तथा मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, वस, वादर, पर्याप्त, शुभ, सुस्वर, आदेय और जिननाम, ये चरमोदय संज्ञावाली' नामकर्म की नौ प्रकृतियां तथा उच्चगोत्र, वेदकसम्यक्त्व और संज्वलनलोभ । इनका कुल योग चौंतीस है।
___ उपर्युक्त प्रकृतियों में से ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, इन चौदह प्रकृतियों का क्षीणकषाय गुणस्थान के चरम समय में स्वोदय से विपाकवेदन होता है। नामनवक, साता-असातावेदनीय और उच्चगोत्र का अयोगिकेवली के चरम समय में स्वोदय से विपाक वेदन होता है। संज्वलनलोभ का सूक्ष्मसंपराय के अंतिम समय में स्वोदय से विपाक वेदन होता है। वेदकसम्यक्त्व का अपने क्षपण के अंतिम समय में स्वोदय से विपाक वेदन होता है। स्त्री और नपुंसक वेद का क्षपकश्रेणि में अनिवृत्तिवादर गुणस्थान के काल के संख्यात भागों के बीत जाने पर उस वेद के उदय के अंतिम समय में स्वोदय से विपाक वेदन होता है। चारों आयुकर्मों का अपने भव के चरम समय में स्वोदय से वेदन होता है। इसलिये ये सभी प्रकृतियां उदयवती कही जाती हैं ।
यद्यपि साता-असातावेदनीय और स्त्री, नपुंसक वेदों का अनुदयवतित्व भी सम्भव है, तथापि 'प्राधान्येनैव व्यपदेशः' इस न्याय के अनुसार इन प्रकृतियों को उदयवती कहा गया है, अर्थात् उदयवतीवृत्ति जातिमत्व लक्षण रूप होने से अनुदयवतित्व उनमें नहीं है। क्योंकि उदयवतीवृत्ति रूप जातिमत्व लक्षण की उनमें प्रधानता है, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिये।
उक्त उदयवती प्रकृतियों से शेष रही एक सौ चौदह प्रकृतियां अनुदयवती हैं । क्योंकि उनके दलिकों का चरम समय में अन्यत्र ध्र व रूप से संक्रमण होने के कारण स्वविपाक से वेदन नहीं होता है । जैसे कि चरमोदय संज्ञावाली नामनवक, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, आतप और 'उद्योत, इन प्रकृतियों को छोड़कर नामकर्म की इकहत्तर प्रकृतियां और नीचगोत्र, ये बहत्तर प्रकृतियां उदय में आई हुई सजातीय परप्रकृतियों में चरम समय में स्तिबुकसंक्रमण से प्रक्षेपण करके परप्रकृति रूप से अयोगिकेवली अनुभव करते हैं । इसी प्रकार निद्रा, प्रचना को उदयगत सजातीय दर्शनावरण की अन्य प्रकृतियों में स्तिबुकसंक्रमण से संक्रमित कर क्षीणकषाय गणस्थानवर्ती परप्रकृति के रूप से वेदन करता है । मिथ्यात्व को सम्यमिथ्यात्व (मिश्रमोहनीय) में, सम्यमिथ्यात्व को सम्यक्त्व में प्रक्षेपण कर सप्तक (अनन्तानबंधीचतुष्क और दर्शनमोहविक ये सात प्रकृतियां) के क्षयकाल में परप्रकृति रूप से यथासम्भव चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक अन्तिम समय में वेदन किया जाता है। अनन्तानुबंधी कषायों के क्षपण के समय उनके दलिक वध्यमान चारित्रमोहनीय की प्रकृतियों में गुणसंक्रमण के द्वारा संक्रमित कर और उदयावलिकागत दलिकों को उदयवती प्रकृतियों में १. दूसरे और छठे कर्मग्रंथ में शुभ और सुस्वर के बदले सुभग और यशःौति के साथ ९ प्रकृतियां अयोगि के चरम • समय में उदयविच्छेद होने वाली बताई हैं। २. जहां पर प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणी क्रम से परमाणु-प्रदेश अन्य प्रकृति रूप परिणमें, वह गुणसंक्रमण है।