Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 78
________________ श्री कमलबत्तीसी जी इस प्रकार सम्यक्चारित्र की शुद्धि कर वृद्धि करते हुये, परमानन्द मयी परमात्म पद को पाना ही मानव जीवन की श्रेष्ठता है, इसी में आत्मा का कल्याण है। सम्यक्चारित्र का यथार्थ स्वरूप श्रीगुरू तारण स्वामी ने अपने जीवन के अनुभव के आधार तथा जिनेन्द्र परमात्मा और जिनवाणी के प्रमाण से संक्षेप में प्रतिपादित किया, विचार मत के तीन ग्रंथों - श्री मालारोहण में सम्यक्दर्शन, श्री पंडित पूजा में सम्यज्ञान और श्री कमल बत्तीसी में सम्यक्चारित्र का स्वरूप बताया है। जो भव्य जीव इनका श्रद्धा भक्ति पूर्वक आत्म कल्याण की भावना से स्वाध्याय मनन कर रत्नत्रय मयी ज्ञान गुण माला को धारण करेंगे, वह संसार के जन्म-मरण के चक्र से छूटकर सिद्ध परमात्मा होंगे। * शत् शत् नमन * श्री कमलबत्तीसी जी पलटते रहना तो पर्याय का स्वभाव है, सो पर के कारण से नहीं है। इस प्रकार ज्ञेय का स्वरूप जानना ही सम्यज्ञान का कारण है। आत्मा की शान्त शून्य स्थिति को अनुभव कहते हैं। आत्मा में शान्ति और आनन्द शक्ति रूप से अनादि अनन्त विद्यमान है। ऐसे आत्मा का पुण्य पाप रागादि भाव कर्मादि से रहित अनुभव हो उसे धर्म कहते हैं। अकषाय परिणाम के प्रकाश को, अनुभव प्रकाश कहते हैं। जड़ की क्रिया जड़ के कारण से होती है। धर्मी को अपने ही कारण से शुभ राग के काल में शुभ राग आता है परन्तु वह धर्म नहीं है। शुभ राग के अवलम्बन से धर्म नहीं होता। निजावलोकन मात्र, चिदानन्द ध्रुव शुद्धात्मा का जितना अनुभव हो उतना ही धर्म है। मोक्षमार्ग तो वीतराग भाव है तथा वीतराग विज्ञान हित का कारण है। निज स्वभाव रूपी साधन द्वारा ही परमात्मा हुआ जाता है। गृहस्थाश्रम में परमात्म दशा प्राप्त नहीं होती। ज्ञानानन्द के साधन द्वारा दिव्य शक्ति प्रगट करो। जिनकी दशा जीवन मुक्त हुई है, वे अरिहन्त देव हैं। इनके चार घातिया कर्मों का अभाव हो चुका है और अन्तर समाहित निज अनन्त शक्ति प्रगट हुई है। वे तीन काल, तीन लोक को एक-एक समय में प्रत्यक्ष जानते हैं। निज शुद्ध स्वरूप ध्रुव तत्व शुद्धात्मा ही साधने योग्य है, इसी की साधना से सिद्ध पद प्रगट होता है। ज्ञान विज्ञान के द्वारा मैं कौन हूँ? मेरा क्या है ? जड़ और चेतन क्या है? कर्म प्रकृति और परमात्म स्वरूप क्या है ? यह सब जानने की शक्ति आ जाती है एवं परम शांति की प्राप्ति होती है। परिस्थिति को बदलना अपने वश की बात नहीं है। बाहरी परिस्थिति शरीरादि संयोग का परिणमन कर्म उदयानुसार ही होता है। ऐसे भेदविज्ञान द्वारा समता भाव में आ जाना ही योग है। मन, वचन, काय से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर अपने स्वरूप की साधना में रत रहना ही त्रिविध योग है। अपना स्वरूप स्वत: सिद्ध है, उसके लिये कुछ करना ही नहीं है। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी साधक सच्चे देव गुरू धर्म शास्त्र का श्रद्धानी, निज शुद्धात्मानुभूति से युक्त शुद्ध दृष्टि, समभाव द्वारा ममल स्वभाव की साधना से सिद्धि मुक्ति सिद्ध पद पाता है, यही सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यग्चारित्र की परिपूर्णता है। सद्गुरू की परम कृपा आशीर्वाद से, स्वयं की भली होनहार से, यह छह माह की सहज मौन साधना करने का शुभ योग मिला, जिसमें ज्ञानोपयोग में निमित्त यह तीन ग्रंथों की टीका की, जो अपने समय का सदुपयोग और आत्म बल बढ़ाने में सहकारी हुये, इससे जिस जीव का भला हो, यह उसकी पात्रता की बात है परन्तु अपना भला हो गया, वस्तु स्वरूप समझ में आ गया। इसके लिये परम गुरू परमात्मा जिनेन्द्र देव भगवान महावीर स्वामी, सद्गुरू श्री जिन तारण-तरण मंडलाचार्य जी महाराज को श्रद्धा भक्ति पूर्वक शत् शत् नमन है। अल्पज्ञता, प्रमादवश जो भूल-चूक हुई हो, सद्गुरू ज्ञानी जन क्षमा करें। ज्ञानानन्द बरेली दिनांक : २६.५.९१

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