________________ [ 10 ] प्रभुभक्ति की महिमा देवों के दिल में कैसी बसी है इस विषय में "श्री पंच प्रतिक्रमण सूत्र" में पूर्वाचार्य लिखते हैं कि येषामभिषेक कर्मकृत्वा, मत्ता हर्ष भरात् सुखं सुरेन्द्राः / तृणमपि गणयन्ति नैव नाकं, प्रातः सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः / / अर्थात-जिन तीर्थंकर परमात्मानों का अभिषेक कार्य करके हर्षवश मस्त सुरेन्द्र स्वर्ग सुख को तृणमात्र भी नहीं गिनते, वे जिनेन्द्र भगवान प्रातः काल में शिवसुख [निरुपद्रवता कल्याण ] के लिये हों। देव-देवेन्द्रों में भगवान के प्रति अपार भक्ति कैसी है कि वे देवलोक के सुखों को प्रभुभक्ति के आगे तृण बराबर भी नहीं गिनते हैं। देव-देवेन्द्रों की अपार भक्ति के दृष्टान्त से तो प्राचार्य को परमात्मा पर अपार भक्ति करना सीखना चाहिए, यह भक्ति तीर्थंकर मामकर्म का बंध कराती है। किन्तु प्राचार्य की हठधर्मिता देखो कि देव-देवेन्द्रों जैसी भगवद् भक्ति सीखना तो दूर रहा, किन्तु परम्परागत जैसे हल्के शब्दों को लिखकर उन देव-देवेन्द्रों की भक्ति की महिमा घटा रहे हैं और नन्दीश्वर द्वीप स्थित शाश्वत जिन मन्दिर के तथ्य को छिपाने का अशोभनीय प्रयास कर रहे हैं। जिसके दिल में तीर्थंकर परमात्मा की भक्ति का अंश मात्र भी न हो, क्या वह देवों की अपार, भक्ति का मूल्य कर सकता है ? तथा जैनागमों पर सच्ची श्रद्धा का प्रभाव वाला व्यक्ति क्या नन्दीश्वर द्वीप स्थित शाश्वत जिन मन्दिरों के सत्य को स्वीकार कर सकता है ? सच ही कहा है जाके दिल में झूठ बसत है, ताको सत्य न भावे / भक्त के मन में मुक्ति से भी प्रभुभक्ति का मूल्य अधिक होता है / -न्यायविशारद पू० यशोविजयजी उपाध्यायजी