Book Title: Kalashamrut Part 5
Author(s): Kanjiswami
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 600
________________ નાટક સમયસારના પદ ५८७ મનની સ્થિરતાનો પ્રયત્ન (દોહરા) जो मन विषै-कषायमैं, बरतै चंचल सोइ। जो मन ध्यान विचारसौं, रुकै सु अविचल होइ।।५२ ।। वजी - (होड) तातै विषै-कषायसौं, फेरि सु मनकी बांनि । सुद्धातम अनुभौविषै, कीजै, अविचल आनि ।।५३ ।। આત્માનુભવ કરવાનો ઉપદેશ. (સવૈયા એકત્રીસા) अलख अमूरति अरूपी अविनासी अज, निराधार निगम निरंजन निरंध है। नानारूप भेस धरै भेसकौ न लेस धरै, चेतन प्रदेश धरै चेतनकौ खंध है।। मोह धरे मोहीसौ विराजै तोमैं तोहीसौ, न तोहीसौ न मोहीसौ न रागी निरबंध है। ऐसौ चिदानंद याही घटमें निकट तेरे, ताहि तू विचारु मन और सब धंध है।।५४ ।। આત્માનુભવ કરવાની વિધિ (સવૈયા એકત્રીસા) प्रथम सुद्रिष्टिसौं सरीररूप कीजै भिन्न, तामें और सूच्छम सरीर भिन्न मानिये। अष्ट कर्म भावकी उपाधि सोऊ कीजै भिन्न, ताहूमें सुबुद्धिको विलास भिन्न जानिये।। तामें प्रभु चेतन विराजत अखंडरूप, वहै श्रुतग्यानके प्रवांन उर आनिये। वाहीको विचार करि वाहीमैं मगन हूजै, वाकौ पद साधिबेकौं ऐसी विधि ठानिये।।५५ । ।

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