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लेखसार
चन्देरी के मालवा सुलतान
प्रो० ए. एच. निजामी, रीवा
1398 में तुगलक साम्राज्य के पतन के बाद पनपे अनेक राजवंशों में दिलावर खां द्वारा स्थापित मालवराज भी है । 1416-20 के बीच यहाँ कादर खान का राज्य था जो कवियों और विद्वानों का सम्मान करता था । वस्तुतः पन्द्रहवीं सदी में बुन्देलखण्ड का शासन चन्देरी और काल्पी से होता था । चन्देरी के अन्तर्गत शिवपुरी, देवगढ़, सागर-दमोह और केन नदी के स्रोत आते थे । इसी समय जबलपुर के गढा क्षेत्र में एक नया गोंड राज्य स्थापित हुआ जिसके राजा संग्रामशाह ने मालवा के अनेक दुर्गों सहित 52 किले जीते । यहाँ की रानी दुर्गावती ने मालवा के सुलतान वाज बहादुर को हराया था। इसके बाद महमूद शाह उस क्षेत्र का बादशाह हुआ। बिलजी सुलतान मालवा के क्षेत्र बढ़ाने का प्रयत्न करते रहे। उनके विषय में संस्कृत और फारसी के लेख मिलते है जिनका विवरण जैन प्रशस्तिसंग्रह में दिया गया है। इसके बाद अलाउद्दीन, नासिर शाह और महमूद खां वहाँ के सुलतान बने । अन्तिम सुलतान के समय मालवा राजपूतों के हाथ आ गया। इतिहास से पता चलता है कि मालवा 1312 के बाद सुलतानों और बाद में मुगलों के अधीन रहा है।
जैन स्रोतों में चन्देरी देश की सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को झांकी मिलती है । दमोह के क्षेत्र में उस समय जलालुद्दीन खोजा ने एक गोमठ (गौ शाला ) स्थापित की थी। इसके एक शताब्दी बाद सोनागिर और नरवर के भट्टारकों की कृपा से यह क्षेत्र जैन संस्कृति का प्रमुख केन्द्र बना । देवगढ़ के 1424 के लेख से प्रकट होता है कि हुशंग शाह के समय में स्थानीय दिगम्बर जैन समाज को राज्य संरक्षण प्राप्त था । मंडू में ओसवाल श्वेताम्बरों को महत्व प्राप्त हुआ। इससे पता चलता है कि मालवा के सुल्तान धार्मिक सहिष्णुता की नीति पर चलते थे। इस क्षेत्र के भट्टारक मन्दिर और मूर्तियों का निर्माण और प्रतिष्ठा करते ये और इनके समय में ही अहार, पपौरा आदि क्षेत्रों का विकास हुआ।
1436 के पूर्व चन्देरी पट्ट के भट्टारक पद पर मूल संघ के देवेन्द्र कीर्ति प्रतिष्ठित हुए थे। उसके बाद त्रिभुवनकीति और यशःकीर्ति गद्दी पर बैठे यशःकीर्ति ने हरिवंशपुराण, धर्मपरीक्षा, परमेष्ठी प्रकाशसार तथा योगसार नामक चार ग्रन्थ लिखे थे जिनका काल 1495-1582 के बीच माना जाता है । ये भट्टारक परिवार जाति के थे और मल्लूखान के शासनकाल में रहे। ग्वालियर क्षेत्र में 1355 के लगभग सोनागिर पीठ स्थापित हुआ। 1449 में यहाँ के भट्टारक कमलकीर्ति हुए। उसके बाद उनके उत्तराधिकारी हुए।
पन्द्रहवीं सदी के पूर्वार्ध में लोकाशाह ने जैनों में मूर्ति विरोधी आन्दोलन प्रारम्भ किया जो बाद में चन्देरी की ओर भी फैल गया। इस क्षेत्र में 1448 में उस समय तारण तरण स्वामी हुए 1 इनका पालन सिरोज और विदिशा में हुआ। ये भट्टारक यशः कीर्ति के समय में हुए थे । जो चैत्यालय और उपासरों में रहते थे और तन्त्र, मन्त्र, आयुर्वेद और ज्योतिष का प्रयोग करते थे । तारण स्वामी ने भट्टारक संप्रदाय के विरोध में एक नयी पद्धति प्रचलित की और उन्होंने बारह ग्रन्थ लिखे लेकिन उनका विशेष प्रभाव इस क्षेत्र के जैनों पर नहीं पड़ा और यहाँ मन्दिर और मूर्तियाँ बनती रहीं। जीवराज पापड़ीवाल ने 1491 1548 के बीच एक लाख जैन मूर्तियाँ बनवाकर उत्तर भारत के कोने-कोने में भेजी ।
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