Book Title: Jyoti Kalash Chalke
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 116
________________ ब्रह्मचर्य के तेज के सामने सभी को निस्तेज कर दिया महावीर ने । ब्रह्मचारी के चरणों में सभी का मत्था टिकवा दिया । ये जितने भी देव, राक्षस, किन्नर, गन्धर्व और यक्ष हैं ये सब विधाता के सामने भी अडिंग रहेंगे लेकिन तब मात खा जाते हैं जब 'मार' का प्रभाव उन पर आता है । जब कामदेव हावी होता है सब समर्पित हो जाते हैं । यहाँ तो विश्व-विजेता भी हार जाएगा । व्यक्ति दुनिया का शासक हो सकता है लेकिन अपनी बीबी का ? कहते हैं हिटलर जिसके नाम से दनिया काँपती थी वह भी अपनी बीबी के सामने तो खुद ही थरथर्राता था । ___ महावीर काम-मुक्ति का सन्देश दे रहे हैं, ब्रह्मचर्य का पाठ पढ़ावा रहे हैं । वे ब्रह्मचर्य के माध्यम से आत्म-शक्ति तो बढ़ाना चाहते ही हैं देश की शक्ति को भी और अधिक पुष्ट करना चाहते हैं । परिवार नियोजन के आधुनिक उपायों से जनसंख्या वृद्धि तो रुक जायेगी, पर वासना, कामेच्छा-भोगेच्छा भरपूर फैल जायेगी । मात्र परिवारनियोजन ही नहीं; देश को सुखी-समद्ध करने के लिए, इच्छा-नियोजन भी होना आवश्यक है । सदाचार के साये में जीने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति अपनी कामना, वासना और तृष्णा पर भी लगाम लगाये। शंकर, अरविन्द, विवेकानन्द और विनोबा ये सब वे ब्रह्मचारी हुए हैं, जिन पर इस देश को नाज है । आज विश्व में 'एड्स' का रोग हर कोने में अपने पाँव पसार रहा है । ऐसे समय में अगर महावीर के ब्रह्मचर्य के सिद्धान्त, को सम्पूर्ण विश्व में आधुनिक रीति से पेश किया जाये, तो महाविनाशकारी एड्स को भी धरती से अपने पाँव सिकुड़ने पड़ेंगे | यह प्रश्न बेबुनियादी है कि अगर सारी दुनिया ही सैक्स से विमुख हो जायेगी तो क्या संसार का अस्तित्व प्रभावित नहीं होगा ? न ऐसा हुआ है न हो सकता है । ब्रह्मचर्य को सामान्य व्रत न समझें । इस धरती पर एड्स जैसे रोग न फैले इसी उद्देश्य से महावीर ने दुनिया को एक व्रत दिया, 'स्वपत्नी सन्तोष व्रत।' अपनी एक पत्नी के साथ सहवास । आज के चिकित्सक कहते हैं, अगर ऐसा हो जाये तो 'एड्स' पृथ्वी पर फैल न पायेगा । ___ एड्स का जन्म ही मनुष्य की भोगेच्छा की विपुलता के कारण हुआ है । हालांकि एड्स रोग के पैदा होने के कारण तो कई हो सकते हैं किन्तु इस रोग के फैलाव का मुख्य कारण अनेकों के साथ सम्पर्क और सहवास रहा है । एड्स तभी पनपता है जब भिन्न-भिन्न शरीरों के कीटाणु, अनासक्तिः संसार में संन्यास/१०७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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