Book Title: Jyo tha Tyo Thaharaya Author(s): Osho Rajnish Publisher: Osho Rajnish View full book textPage 3
________________ ज्यों था त्यों ठहराया कंडक्टर ने झांका। कंडक्टर भी सरदार! जल्दी से दरवाजा बंद कर के विचित्तर सिंह को कहा कि भई, तुम दूसरे डब्बे के संडास में चले जाओ। भीतर तो कंडक्टर है! देखा कि ड्रेस वगैरह कंडक्टर की है! वह जो दर्पण है, वह सिर्फ सरदारों को ही धोखा दे रहा है--ऐसा मत सोचना। दर्पण सब को धोखा दे रहा है। और जीवन में बहुत तरह के दर्पण हैं। हर आंख एक दर्पण है। मां की आंख में बच्चा अपने को झांकता है, तो उसे पहले प्रतीति होती है कि मैं कौन हूं। वह प्रतीति जीवन भर पीछा नहीं छोड़ती। वह दुई छाया की तरह पीछे लगी रहती है। क्योंकि मां ने जैसा अगाध, बेशर्त प्रेम दिया, वैसा कौन देगा! कुछ मांगा नहीं। बच्चे के पास देने को कुछ था भी नहीं। बच्चा कुछ भी नहीं देता है। मां सब देती है। इससे एक भ्रांति पैदा होती है, कि बच्चे को यूं लगता है कि लेने का मैं हकदार हूं! दर्पण से धोखा खा गया। अब वह जिंदगी भर मांगेगा कि--दो। पत्नी से मांगेगा। मित्रों से मांगेगा। जहां जाएगा--कहीं छिपी भीतर आकांक्षा रहेगी कि प्रेम दो। प्रेम मैं दूं--यह तो बात ही नहीं उठेगी। क्योंकि पहला दर्पण जो मिला था, वह मां का दर्पण था। उस दर्पण से जो उसे छवि दिखाई पड़ी थी, वह यह थी कि मैं जैसा हूं, प्रेम का पात्र हूं। प्रेम मुझे मिलना चाहिए; यह मेरा हक है, अधिकार है। प्रेम को अर्जित नहीं करना है। बिना अर्जित मिलता है। और जीवन भर दुखी होगा, क्योंकि पत्नी मां नहीं होगी। मित्र मां नहीं होंगे। यह समाज मां नहीं होगा। फिर मां कहां मिलेगी? फिर मां कहीं भी नहीं मिलेगी। इस बड़ी दुनिया में हर जगह दुतकारा जाएगा। और कठिनाई यह है कि इस बड़ी दुनिया में जो भी लोग मिलेंगे, उन सबने मां के दर्पण में अपने चेहरे को देखा है। वे भी मांग रहे हैं कि दो! तो मांग उठ रही है कि दो। प्रेम दो। पत्नी पति से मांग रही है। पति पत्नी से मांग रहा है। मित्र मित्र से मांग रहा है। देने वाला कोई भी नहीं! मांगने वालों की भीड़ है, जमघट है। मांगने वाले, मांगने वालों से मांग रहे हैं! भिखारी भिखारी के सामने हाथ फैलाए खड़े हैं! दोनों के हाथों में भिक्षा-पात्र है। वह जो दुई पैदा हो गई दर्पण से, अब अड़चन आएगी; अब छीना-झपटी शुरू होगी। जब नहीं मिलेगा मांगे से, तो छीनो--झपटो--जबर्दस्ती लो। इस जबर्दस्ती का नाम ही राजनीति है। नहीं मिलता मांगे से, तो क्या करें! फिर येन केन प्रकारेण, जैसे भी मिल सकता हो-- लो। कैसी-कैसी विडंबनाएं पैदा हो जाती हैं। लोग प्रेम के लिए वेश्याओं के पास जा रहे हैं! सोचते हैं, शायद पैसा देने से मिल जाएगा! पैसा देने से प्रेम कैसे मिलेगा? प्रेम तो खरीदा नहीं जा सकता। सोचते हैं, बड़े पद पर होंगे, तो मिलेगा। लेकिन कितने ही बड़े पद पर हो जाओ, प्रेम नहीं मिलेगा। हां, खुशामदी इकट्ठे हो जाएंगे। लेकिन खुशामद प्रेम नहीं है। लाख अपने को धोखा देने की कोशिश करो, दे न पाओगे। एक तसवीर देखी थी पिता की आंखों में, वह धोखा हो गई। एक तसवीर देखी थी भाई-बहनों की आंखों में, वह धोखा दे गई। एक तसवीर देखी थी भाई-बहनों की आंखों में, वह धोखा दे गई। फिर तस्वीरें ही Page 3 of 255 http://www.oshoworld.comPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 ... 255