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श्री जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' जो सज्जन किसी के भी समाधि मरण में सहायक होकर अपनी आवश्यक सेवाएं प्रदान कर उसे विधिपूर्वक सम्पन्न कराते हैं उनके समान उसका दूसरा कोई उपकारी या मित्र नहीं है। और जो इष्ट-मित्रादिक उस मरणासन्न के हित की-कोई चिन्ता तथा विधि-व्यवस्था न करके अपने स्वार्थ में बाधा पड़ती देखकर रोते-पीटते-चिल्लाते हैं तथा ऐसे वचन मुह से निकालते हैं जिससे म्रियमारण-अातुर का चित्त विचलित हो जाए, मोह तथा वियोग-जन्य' दुःख से भर जाय और वह प्रात्मा तथा अपने भविष्य की बात को भुलाकर संक्लेश-परिणामों के साथ मरण को प्राप्त होवे, तो वे इष्ट मित्रादिक वस्तुतः उसके सगे सम्बन्धी नहीं, किन्तु अपने कर्तव्य से गिरे हुए अपकारी एवं शत्रु होते हैं । ऐसे ही लोगों को स्वार्थ के सगे अथवा मतलब के साथी कहा जाता है । अतः मरणासन्न के सच्चे सगे सम्बन्धियों को चाहिए कि वे अपने कर्तव्य का पूर्णतत्परता के साथ पालन करते हुए उसके भविष्य एवं परलोक सुधारने का पूरा प्रयत्न करें। अपने रोने-रड़ाने के लिए तो बहुत समय अवशिष्ट रहता है, मरणासन्न के सामने रो-रडाकर तथा विलाप करके उसकी उस अमूल्य मरण-घड़ी को नहीं बिगाड़ना चाहिए, जिसे समता भाव तथा शुभ परिणामों के अस्तित्व में कल्प वृक्ष के समान मन की मुराद पूरी करने वाली कहा गया है और इसलिए इसे उत्सव, पर्व तथा त्यौहार के रूप में मनाने की जरूरत है।
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