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उन्होंके समाधानके लिए जिनशेखर उपाध्यायगए तथा यह स्वरूप अपने स्थान रहे हुए जयदेव आचार्यने सुना कि श्रीजिनवल्लभसूरिके पदपर श्रीजिनदत्तसूरिजी सर्वगुणयुक्त प्रतिष्ठित भएहैं, और विहारकर्ते हुए इस देशमें आए हैं वाद विचार किया यह अच्छाभया है श्रीजिनवल्लभ गणीने चैत्यवासका परिहारकरके श्रीजिनअभयदेवसूरिजीके पासमें वस्तीवास अंगीकार किया सुनके पहलेही हमारा वस्तिवास प्रतिपत्तिका अभिप्राय उत्पन्न भयाथा इस वक्तमें जाके गुरुका दर्शनकरें ऐसा विचारके परिवारसहित जयदेवआचार्य श्रीजिनदत्तसूरिजीकोवन्दनाकरनेकेलिए आए विनयसहित श्रीजिनदत्त सूरिजीको वन्दना करी आचार्यनेभी सिद्धान्तोक मधुर वचनोंसे जयदेवआचार्यकेसाथऐसावचनव्यवहारकिया कि जिससे सपरिवार जयदेवआचार्यका ऐसा परिणामभया कि इस भवमें हमारे यही गुरुहोवो उसके अन्तर शुभमुहूर्तमें जयदेवआचार्यने चारित्रका उपसंपद ग्रहण किया ॥
सनत्कुमारचक्रीके जैसा पीछा देखानहीं उस देशमें श्रीजिनप्रभाचार्य केवलिकपरिज्ञान नाम शकुनादिअवधारण परिज्ञानसे सबलोगोंमें प्रसिद्धथे वहजिनप्रभाचार्य तुरकराज्यमेंगए किसी तुरक नायकने ज्ञानीजानके पूछा मेरे हाथमें क्या है आचार्यने विचारके कहा खडीमट्टीका टुकड़ा वालसहित है वह तुरकनायक खडीखडजानता है वाल नहींजानता है आश्चर्यपाया हुआ हाथदिखाया तव वालखड़ीपरलगाहुआदेखा तव तुरकनायक खुशीभया चंगा २ ऐसा बोला हाथपकडकर चुंबनकिया बाद आचार्यने
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