Book Title: Jainendra Kahani 03
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 213
________________ जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] जाने से पहले वह यह कर चुके थे, इस बात को क्यों भूलते हो ?" __ युवराज फिर अधिक नहीं बोले, “एकान्त में जाकर विचार करने लगे। अनन्तर उन्होंने फिर प्राणपण से पिता की खोज की। सब खोजा, सब छाना । पर कहीं नहीं उनका पता चला । युवराज खिन्न हो पाए । मन में मुंह डाल फिर सोचते रहे । अन्त में सेनाधिपति और राजगुरु दोनों से एक साथ एक ही स्थान पर भेंट की और तीनों में सुदीर्घ मन्त्रणा हुई। ___इस मन्त्रणा में से स्पष्ट हुआ कि युवराज संघर्ष से स्वयं बच कर अधिक से अधिक गृह-युद्ध को कुछ काल टाल ही सकते हैं, रोक न पायेंगे। सेना और न्याय के अध्यक्षों की महत्त्वाकांक्षाओं में एक-दूसरे के लिए जगह नहीं है। इस पर युवराज सन्नद्ध हो गए और प्रभात होते-होते आज्ञा प्रचारित हो गई कि सेनाधिपति जयसेन को बनाया जाता है और न्याय-सचिव के लिए क्षेमकर को नियुक्त किया जाता है। यह भी आदेश है कि चौबीस घंटे के भीतर खड्गसेन राजधानी से बाहर चले जायँ । राजगुरु को अपने अहाते से बाहर निकलने का प्रतिषेध हुआ। __ रात-भर युवराज काम में रहे और अन्तःपुर नहीं आए। सवेरे तक नई व्यवस्था पूरी कर दी गई। यथावश्यक आज्ञाएँ जारी हो गई। तब युवराज प्रातःकाल रानी से मिले और उनको सब कथा सुनाई । सुनकर रानी स्तब्ध रह गई। कारण राज-माता महलों में अनुष्ठान करा रही थी। जो राजगुरु की देख-रेख में चल रहा था। राज-माता पुत्र के सम्बन्ध में प्राशङ्का से घिरी रहती थीं। उसी के कल्याण के निमित्त यह अनुष्ठान का विधान था। इससे रानी दुस्समाचार सुनकर शंकित हो गई।

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