Book Title: Jainacharyo ka Shasan bhed
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 18
________________ अष्ट मूलगुण ११. है। कहाँ पंचाणुव्रत और कहाँ पंचोदुम्बर फलोंका त्याग ! दोनोंमें जमीन भासमानकासा अन्तर पाया जाता है। वस्तुतः विचार किया जाय तो पंच उदुम्बर फलोंका त्याग मांसके त्यागमें ही आ जाता है; क्योंकि इन फलोंमें चलते फिरते त्रसजीवोंका समूह साक्षात् भी दिखलाई देता है, इनके भक्षणसे मांसभक्षणका स्पष्ट दोष लगता है, इसीसे इनके भक्षणका निषेध किया जाता है। और इसलिये जो मांसभक्षणके त्यागी हैं वे प्राय: कभी इनका सेवन नहीं कर सकते । ऐसी हालतमें-मांसत्याग नामका एक मूलगुण होते हुए भी-पंच उदुम्बर फलोंके त्यागको, जिनमें परस्पर ऐसा कोई विशेष भेद नहीं है, पाँच अलग अलग मूलगुण करार देना और साथ ही पंचाणुव्रतोंको मूलगुणोंसे निकाल डालना एक बड़ी ही विलक्षण बातमालूम होती है । इस प्रकारका परिवर्तन कोई साधारण परिवर्तन नहीं होता। यह परिवर्तन कुछ विशेष अर्थ रखता है। इसके द्वारा मूलगुणोंका विषय बहुत ही हलका किया गया है और इस तरहपर उन्हें अधिक व्यापक बनाकर उनके क्षेत्रकी सीमाको बढ़ाया गया है । बात असिलमें यह मालूम होती है कि मूल और उत्तर गुणोंका विधान व्रतियोंके वास्ते था। अहिंसादिक पंचव्रतोंका जो सर्वदेश ( पूर्णतया ) पालन करते हैं वे महाव्रती, मुनि अथवा यति आदिक कहलाते हैं और जो उनका एकदेश (स्थूल रूपसे ) पालन करते हैं उन्हें देशवती, श्रावक अथवा देशयति कहा जाता है । ___ जब महाव्रतियोंके २८ मूलगुणोंमें अहिंसादिक पंच महाव्रतोंका वर्णन किया गया है तब देशवतियोंके मूलगुणों में पंचाणुव्रतोंका विधान होना स्वाभाविक ही है और इसलिए समन्तभद्रने पंच अणुव्रतोंको लिए हुए श्रावकोंके अष्ट मूलगुणोंका जो प्रतिपादन किया है वह युक्तियुक्त ही प्रतीत होता है। परंतु बादमें ऐसा जान पड़ता है कि जैन गृहस्थोंको परस्परके

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