Book Title: Jain Shiksha Digdarshan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 45
________________ (४३) पद्रव्य, नवतरव, सात नय, दो प्रमाण, द्वादश थाधक के व्रत; काल, स्वभाव, नियति, पुरुषाकार और कर्म, इन पांच कारणों का, तथा वर्णव्यवस्था वगैरह का संक्षिप्त स्वरूप जैनतत्यदिग्दर्शन नामक व्याख्यान में कहा जा चुका है, इसलिये उसको वारंवार कहना मैं उचित नहीं समझता हूँ। । यद्यपि जैनों में अनेक भेद प्रभेद हैं किन्तु पूर्वोक मुक्त्यादि पदार्थ को तो सभी इसी तरह स्वीकार करते है, लेकिन जैनेतर दर्शनकारों ने मुक्ति के स्वरूप में जा अपने २ मन के भेद माने हैं, वे भेद भी यदि यहां पर दिखलाये जायें तो महीनों में भी इस व्याख्यान के पूरे होने की सम्भावना नहीं है। अन्त में मैं यही कहता हूँ कि यद्यपि लोगों की भिन्न भिन्न रुचि होने से यह मेरा आज का व्याख्यान सभी को अच्छा ही मालूम हो, ऐसी मैं स्वप्न में भी संभावना नहीं कर सकता; तथापि मध्यस्थदृष्टिरखनेवाले श्रोताओं को तो अवश्य कुछ न कुछ इससे लाभ ही होगा; यह मुझे पूरा विश्वास है । वस ! इतना ही कहकर और न्यूनाधिक होने की क्षमा मांगता हुआ इस व्याख्यान को समाप्त करता हूँ। यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया । वीतदोपकलुवः स चेद् भवान् । एक एव भगवन् ! नमोऽस्तु ते ॥१॥ -

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49