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186 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
जाने वाली लोहे की सूई की तरह विभाव भाव की शक्ति है। द्रव्य कर्म जीव के ज्ञानादि स्वभावों के विकार का कारण होता है और जीव का रागद्वेष कषायादि वैभाविक भाव द्रव्य कर्म के आस्रव का कारण होता है। आशय यह है, कि आत्मा के वैभाविक भावों के निमित्त से पृथक् भूत कार्मण-पुद्गल ज्ञानावरणीयादि कर्म रूप में परिणत हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में जीव (आत्मा) और कर्म-पुद्गल दोनों ही अशुद्ध हो जाते हैं, वे अपने शुद्ध रूप में नहीं रहते हैं।
जब तक आत्मा में कर्मबन्ध का कारण विद्यमान रहता है, तब कार्मण शरीर के द्वारा कर्म पुद्गल आत्मा के साथ सम्बन्ध कर सकते हैं, अन्यथा नहीं। यद्यपि मुक्त आत्माएँ भी पुद्गल व्याप्त आकाश में स्थित हैं, किन्तु उन आत्माओं में कर्मबन्ध के कारणों का अत्यन्ताभाव है, इसलिए पुद्गल वहाँ रहते हुए भी उन्मुक्त आत्माओं से सम्बन्ध नहीं कर सकते और बिना सम्बन्ध के वे आत्मा का कुछ भी नहीं कर सकते।
जो पुद्गल आत्म प्रवृत्ति द्वारा ग्रहण नहीं किए जाते, यों ही लोक में फैले हुए हैं, उनमें फलदान की शक्ति नहीं होती। संसारी आत्माओं में कर्मबन्ध का कारण विद्यमान होता है, अतः कर्म पुद्गल आत्मा के द्वारा ग्रहण किए जाते हैं तथा उन पुद्गलों के साथ आत्मा का एकी भाव होने से उनमें फल देने की शक्ति आ जाती है
और वे यथा समय अपना फल देकर आत्मा से अलग हो जाते हैं। अतः आत्मा और कर्म के सम्बन्ध का हेतु आत्मा की तद्नुकूल प्रवृति ही है।
जैन दर्शन जीव और कर्म के सम्बन्धों को प्रवाह रूप से अनादि मानता है। गोम्मटसार में कहा है – “जिस प्रकार सुवर्ण और पाषाण यद्यपि भिन्न-भिन्न वस्तु है, तथापि इनका सम्बन्ध (प्रवाहरूप से) अनादि माना जाता है, ये नये नहीं मिले हैं। इसी प्रकार जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है। पंचास्तिकाय में जीव और कर्म का अनादि संबंध ‘जीव-पुद्गल-कर्मचक्र' द्वारा सिद्ध किया गया है - “जो संसार में स्थित (जन्म-मरण के चक्र में पड़ा हुआ) जीव है, उसके रागद्वेष (कषाय) रूप परिणाम अवश्य होते हैं। उन परिणामों से नए कर्म बँधते हैं। उन कर्मों से नाना गतियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्म से शरीर होता है। शरीर में इन्द्रियाँ होती है। इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण, विषयों के ग्रहणवश मनोज्ञ-अमनोज्ञ पर राग-द्वेष परिणाम होते हैं। इस प्रकार संसार चक्र में पड़े हुए जीव के भावों से कर्म और कर्म से भाव होते रहते हैं। यह प्रवाह अभव्य जीव की अपेक्षा से अनादि-अनन्त और भव्य जीव की अपेक्षा से अनादि-सान्त है।"34
इस प्रकार आत्मा के साथ कर्म व अनादि सम्बन्ध प्रवाह रूप से है, वैयक्तिक रूप से नहीं, क्योंकि सभी कर्म अवधि स. हेत होते हैं। कर्म-पुद्गलों में कोई एक भी ऐसा नहीं, जो अनादि काल से आत्मा के साथ लगा हुआ हो। कर्म सबसे उत्कृष्ट रूप से 70 कोड़ाकोड़ सागर तक आत्मा के साथ सम्बन्धित रह सकता है, उससे अधिक